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श्लो . : 5
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
167.
है। यह आहारक-शरीर असंयम का परिहार करने के लिए तथा संदेह को दूर करने के लिए आहारक-ऋद्धि के धारक छठे गुणस्थान-वर्ती मुनि के आहारकशरीर नामकर्म के उदय से होता है। वह शरीर उनके निमित्तों से निकलता है। अपने क्षेत्र में केवली तथा श्रुतकेवली का अभाव होने पर, किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ पर कि औदारिक शरीर से उस समय पहुँचा नहीं जा सकता, केवली या श्रुतकेवली के विद्यमान रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षा-कल्याणक आदि तीन कल्याणकों में से किसी के होने पर तथा जिन, जिन-गृह, चैत्य-चैत्यालयों की वन्दना के लिए भी आहारक-ऋद्धि वाले छठे गुणस्थान-वर्ती प्रमत्तमुनि के आहारक-शरीर-नाम-कर्म के उदय से यह शरीर उत्पन्न होता है, ऐसा गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ में कहा गया है। आयु से भिन्न तीन अघातिया कर्मों की अधिक स्थिति को आयु कर्म के बराबर करने के लिए जो आत्मा के प्रदेश मूल शरीर से बाहर दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण रूप में फैलते हैं, और पुनः लोकपूरण, प्रतर, कपाट और दण्ड रूप से वे आत्म-प्रदेश उसी शरीर में फिर से वापस लौटते हैं, यह केवली समुद्घात है।
-गोम्मटसार, गाथा-235-240 तक .. 7. केवली समुद्घात- केवली समुद्घात के समय आत्मा के प्रदेश सम्पूर्ण लोक में
फैल जाते हैं, लोकपूरण समुद्घात की अपेक्षा भी जीव सर्वव्यापी है। "न सर्वथा" "सर्वथा नहीं है" नय-विवक्षा से आत्मा के अनन्त-धर्मपना सिद्ध होता
जड़-भाव, शून्य-भाव, सर्वगतभाव, देह-प्रमाण-भाव, -ये सभी अवस्थाएँ स्याद्वाद् से जीव में कही जा सकती हैं, परन्तु एकान्त से विपरीतता से एक भी घटित नहीं होती हैं, जो कि अन्य एकान्त दर्शनों में स्वीकार की गई हैं। ज्ञान-दृष्टि से जीव सर्व-गत सर्व-व्यापी भी हैं। इन्द्रिय-ज्ञान से रहित होने से शुद्धात्मा जड़ भी है। जड़ता से प्रयोजन चैत्य-शून्यता नहीं है। सर्वज्ञदेव केवलज्ञान में लीन रहते हैं, शुद्ध चैतन्य-गुण-मण्डित हैं, अतः अजड़त्व-स्वभावी हैं, भगवान् शुद्धात्मा शून्य-स्वभावी भी हैं, परन्तु अष्ट-गुण-शून्य नहीं हैं, अष्टकर्म व अट्ठारह दोषों के अभाव होने से इनसे शून्य हैं, गुण-स्वभावी हैं, इसलिए आत्मा अशून्य-स्वरूप है तथा दोषों से रहित है, इसलिए शून्य-स्वभावी है, परन्तु जैसा बौद्धमत वाले सर्वथा शून्य मानते हैं, वैसी अनंत