________________
स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
श्लो. : 4
यहाँ दो विचार पैदा होते हैं कि ज्ञान के साथ जीव का समवाय सम्बन्ध होने के पूर्व यह जीव ज्ञानी था या - कि अज्ञानी ?... यदि कहोगे कि ज्ञानी था, तो ज्ञान का समवाय सम्बन्ध हुआ, यह कहना व्यर्थ होगा, क्योंकि ज्ञानी तो पहले से था अथवा यदि कहोगे कि वह अज्ञानी था, तो वहाँ भी दो विचार उठते हैं कि वह अज्ञान-गुण के समवाय - सम्बन्ध से अज्ञानी था कि स्वभाव से अज्ञानी था। यदि वह जीव अज्ञान-गुण के समवाय से अज्ञानी था, तो अज्ञान - गुण का समवाय कहना वृथा होगा, क्योंकि अज्ञानी तो पहले से ही था, अथवा यदि मानोगे कि स्वभाव से अज्ञानीपना है, तो जैसे अज्ञानीपना स्वभाव से है, वैसे ज्ञानीपना भी स्वभाव से क्यों न मान लिया जावे, क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है, गुण और गुणी भिन्न नहीं होते । यहाँ यह तात्पर्य है कि जैसे सूर्य में मेघों के पटलों से आच्छादित होते हुए भी प्रकाश पहले से ही मौजूद है; फिर जितना - जितना पटल हटता है, उतना उतना प्रकाश प्रकट होता है, वैसे ही जीव में निश्चय - नय से क्रमवर्ती जानने से रहित तीन लोक सम्बन्धी व उसके भीतर रहने वाले सभी पदार्थों के अनन्त स्वभावों को प्रकाश करने वाला अखण्ड प्रकाशमयी केवल - ज्ञान शक्ति-रूप में पहले से ही मौजूद है, किन्तु व्यवहार-नय से अनादि काल से कर्मों से ढका हुआ वह पूर्ण प्रकट नहीं है एवं उस पूर्ण- ज्ञान का पता नहीं चलता है, फिर जितना - जितना कर्म-पटल घटता जाता है, उतना-उतना ज्ञान प्रकट होता जाता है। वह ज्ञान जीव के बाहर कहीं भी नहीं है, जहाँ से जीव में आता हो और पीछे समवाय-सम्बन्ध से जीव से मिल जाता हो, यहाँ पर यह निर्णय समझना ज्ञान आत्मा का धर्म है, धर्म धर्मी से कभी भी भिन्न नहीं होता है, अतः आत्मा ज्ञानी है, ज्ञान आत्मा में है ।
58/
समवाय की परिकल्पना में अनवस्था - दोष आता है, क्योंकि आत्मा चेतना के समवाय से चैतन्यवान् हुआ, तो चेतना किसके समवाय से चेतन हुई ?... - यह प्रश्न अनवस्था की उपस्थिति करता है । अतः अग्नि के उष्ण गुण की तरह आत्मा का चैतन्य स्वरूप भी स्वभावतः है, समवाय से नहीं ।
ज्ञान जो है, वह "पूर्वापरीभूतं" भूतकाल, भविष्यकाल के विषय को जानने वाला है, स्व के साथ। जो पूर्व में दृष्टान्त देकर शंका रखी थी, ज्ञान पर को ही जानता है, स्व को नहीं जानता, नट का उदाहरण देकर जो आलाप किया है, वह भी वैशेषिकों की बुद्धि- न्यूनता का ही प्रतीक है । ज्ञानियो! एक ज्ञान के द्वारा दूसरे ज्ञान की आवश्यकता बतलाना ऐसे ही है, जैसे- जलते दीपक को खोजने के लिए एक और