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श्लो. : 4
दीपक जलाना, ज्ञान पर - प्रकाशी है, कितना बड़ा आश्चर्य है, जो पर को प्रकाशित करे और स्वयं को प्रकाशित न कर पाए, - यह कथन युक्ति व आगम के विरुद्ध है, जैन-दर्शन में ज्ञान को स्व-पर- प्रकाशक कहा है, वही प्रमाण है ।
स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।।
* मानव की
मूँ और पूँछ दोनों बनते
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
- परीक्षामुख सूत्र - 1
जो अपने-आपको अथवा अपने स्वरूप को और अन्य पदार्थों के स्वरूप को निर्णय को विशेष रूप से धारण करता है, वही प्रमाण कहा जाता है । जैसे- नट स्वयं अपने कंधे पर चढ़ने का अभिनय नहीं कर सकता, उसीतरह ज्ञान अपने को प्रकाशित नहीं करता, यह मत जैनों के विचार से युक्ति-संगत नहीं है । जैसेदीपक स्व-पर-प्रकाशक होता है, स्व को भी प्रकाशित करता है और पर-पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, ऐसा जैनों का ज्ञान के संबंध में मत है । वह मात्र पर - प्रकाशी नहीं, वह तो स्व-पर- प्रकाशी है, उसीप्रकार जो ज्ञान अन्य को जानता है, वह ज्ञानी स्व को भी जानता है, अतः यहाँ पर आचार्य भगवन् अकलंक स्वामी ने इस कारिका गुण- गुणी का स्याद्वाद् नय से बहुत ही सुन्दर कथन किया है, नय-प्रमाण से तत्त्व का परिज्ञान ही श्रेयस्कर है, यही परम-उपादेय है।।४।।
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* जानते हैं झुकना गुणों से भरे गुणी.... I
विशुद्ध-वचन
दुर्गति के कारण....... इसलिए सँभाल कर रखो
इन्हें..... ।
* मत मारो पग
पद के मान में आकर
पता नहीं कब चला जाए पद...? पर पग मारने का बन्ध
रह जाता बँध
लम्बे समय तक ..... ।
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* मान बना देता
मानव को
दानव... ।