SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्लो. : 4 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 157 यदि ज्ञानी और ज्ञान सदा परस्पर अर्थान्तर-भूत हों, तो दोनों को अचेतनपने का प्रसंग आ जाये -ऐसा "जिन का सम्यक् मत है।" यदि ज्ञानी (आत्मा) ज्ञान से अर्थान्तर भूत हो, तो आत्मा अपने करण अंश, बिना कुल्हाड़ी रहित, देवदत्त की भाँति करण का व्यापार करने में असमर्थ होने से न चेतता (जानता) हुआ ही अचेतन ही होगा और यदि ज्ञान ज्ञानी (आत्मा) से अर्थान्तर-भूत हो, तो ज्ञान अपने कर्त्ता अंश के बिना, देवदत्त-रहित कुल्हाड़ी की भाँति, अपने कर्त्ता का व्यापार करने में असमर्थ होने से न जानने के कारण अचेतन ही होगा। पुनश्च युत-सिद्ध, पृथक्-सिद्ध, ऐसे ज्ञान और ज्ञानी के संयोग से चेतनपना हो, -ऐसा भी नहीं है, क्योंकि निर्विशेष द्रव्य निराश्रय-शून्य होते हैं अर्थात् गुण के बिना द्रव्य और द्रव्य-रूप आश्रय के बिना गुण का अभाव होता है। यदि कोई यों कहे कि समवाय से ज्ञानी जानता है, यानी आत्मा ज्ञान के संयोग से ज्ञेयों को जानता है, तो यह बात भी अभूतार्थ ही है, किंचित् भी सम्यक् नहीं है, समवाय का जो अर्थ नैयायिक और वैशेषिक करते हैं, वह यहीं घटित नहीं होता, नैयायिक और वैशेषिक समवाय का अर्थ संयोग करते हैं, जो कि युत-सिद्ध है, अपृथग्भूत है, वह जैन-दर्शन स्वीकार नहीं करता। जैनदर्शन में कहा है कि द्रव्य और गुण एक-अस्तित्व से रचित हैं, इसलिए उनकी जो अनादि-अनंत सह-वृत्ति (एक-साथ रहना) है, वह वास्तव में समवर्तीपना है, वही जैनों के मत में समवाय है। वही संज्ञादि भेद होने पर भी वस्तु-रूप से अभेद होने से अपृथक्पना है, वही युतसिद्धि के कारण-भूत अस्तित्वांतर का अभाव होने से अयुतसिद्धपना है, इसलिए समवर्तित्व-स्वरूप समवाय वाले द्रव्य और गुण अयुतसिद्ध ही हैं, गुण और गुणी में पृथक्पना नहीं है। पुनः एक बार ध्यान देना चाहिए- यदि ज्ञान को ज्ञानी से अत्यन्त-भेद रूप मानोगे, तो समवाय नाम के सम्बन्ध से भी उनकी एकता नहीं की जा सकती है। ण हि सो समवायादो अत्यंतरिदो दुणाणदो णाणी। अण्णाणीति य वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि। . -पंचास्तिकाय, गा. 49 तथा ज्ञान से अत्यन्त भिन्न होता हुआ, वह जीव समवाय सम्बन्ध से ज्ञानी नहीं होता है। यह जीव अज्ञानी है, -ऐसा वचन गुण और गुणी की एकता को साधने वाला हो जाता है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy