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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 3
है। स्वरूपास्तित्व विशेष-लक्षण रूप है, क्योंकि वह द्रव्यों की विचित्रता का विस्तार करता है तथा अन्य द्रव्य भेद करके प्रत्येक द्रव्य की मर्यादा करता है, और सत् ऐसा जो सादृश्यास्तित्व है, सो द्रव्यों में भेद नहीं करता, सब द्रव्यों में प्रवर्तता है, प्रत्येक द्रव्य की मर्यादा को दूर करता है और सर्व-गत है, इसलिए सामान्य-लक्षण-रूप है। 'सत्' शब्द सब पदार्थों का ज्ञान कराता है, क्योंकि यदि ऐसा न मानें, तो कुछ पदार्थ सत् हों, कुछ असत् हों और कुछ अव्यक्त हों, परन्तु ऐसा नहीं है। जैसे- वृक्ष अपने स्वरूपास्तित्व से आम, बबूल व नीमादि के भेदों से अनेक प्रकार के हैं और सादृश्यास्तित्व से वृक्ष जाति की अपेक्षा एक हैं, इसीप्रकार द्रव्य अपने-अपने स्वरूपास्तित्व से छ: प्रकार के हैं, और सादृश्यास्तित्व से सत् की अपेक्षा सब एक हैं, सत् के कहने में छ: द्रव्य गर्भित हो जाते हैं, जैसे- वृक्षों में स्वरूपास्तित्व से भेद करते हैं, तब सादृश्यास्तित्व-रूप वृक्ष-जाति की एकता मिट जाती है, और जब सादृश्यास्तित्व-रूप वृक्ष-जाति की एकता करते हैं, तब स्वरूपास्तित्व से उत्पन्न नाना-प्रकार के भेद मिट जाते हैं। इसीप्रकार द्रव्यों में स्वरूपास्तित्व की अपेक्षा सद्-रूप एकता मिट जाती है और सादृश्यास्तित्व की अपेक्षा नाना प्रकार के भेद मिट जाते हैं। भगवान् का मत अनेकान्त-रूप है, जिसकी विवक्षा करते हैं, वह पक्ष मुख्य होता है, और जिसकी विवक्षा नहीं करते, वह पक्ष गौण होता है। अनेकान्त से नय सम्पूर्ण प्रमाण हैं, विवक्षा की अपेक्षा मुख्य-गौण हैं।
वस्तुत्वगुण
जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य में अर्थ-क्रिया होती है, उसे वस्तुत्व-गुण कहते हैं, जैसे घड़े की अर्थ-क्रिया जल-धारण है। वस्तुनो भावो वस्तुत्वम्, सामान्य-विशेषात्मकं वस्तु।
-आलापपद्धति, सूत्र 95 वस्तु के भाव को वस्तुत्व कहते हैं, वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है। सामान्य से रहित विशेष, विशेष से रहित सामान्य नहीं होता, जहाँ सामान्य होता है, वहाँ विशेष होता ही है, जैसे पुरुष सामान्य है, उसमें बालक, युवा, वृद्ध आदि-संज्ञा विशेष है, सामान्य अभेद-रूप है, विशेष भेद-रूप हैं। कहा भी है
निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खर-विषाण-वत्। सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि।।
-आलापपद्धति सूत्र 131 में उद्धृत