________________
42/
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 3
मलिन कर मिथ्यात्व की गर्त में गिरता है। तटस्थ हुआ योगी लोक-व्यवस्था को देखकर न हर्ष को प्राप्त होता है, न विषाद को। वह माध्यस्थ्य-भाव से निज द्रव्य-गुण-पर्याय का अवलोकन कर असमान-जातीय-पर्याय से मोह घटाकर समान-जातीय अपने चैतन्य-धर्म का अवलोकन करता है। अन्य को अन्य भूत ही देखता है। अन्य में अन्य-दृष्टि को नहीं डालता, अन्य तो अन्य ही रहते हैं, वे अन्यान्य तो नहीं हो सकते, क्योंकि भिन्न द्रव्य का भिन्न द्रव्य से अत्यन्ताभाव होता है। तत्त्व-ज्ञानी यह समझता है कि लवण-समुद्र का पानी ग्रीष्म-काल में शुष्क होकर कठोर नमक के रूप में परिवर्तित हो जाता है। वह कठोर द्रव्य वर्षा-काल में तरल पानी के रूप में पुनः आ जाता है। यह तो हो सकता है, क्योंकि इनमें अन्योन्याभाव था, पर ऐसा जीवादि द्रव्यों के साथ नहीं होता, चाहे ग्रीष्म-काल हो, चाहे शीत; एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप कभी भी नहीं होता, अपनी-अपनी सत्ता में ही सद्-रूप रहते हैं। सद्-रूपत्व-अस्तित्व/स्वरूपास्तित्वअस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम्।।
-आलापपद्धति, सूत्र 94 अस्ति के भाव को अस्तित्व कहते हैं, अस्तित्व का अर्थ सत्ता है। जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कभी नाश नहीं होता, वह अस्तित्व है। वही निश्चय करके मूलभूत स्वभाव है, निश्चय करके अस्तित्व ही द्रव्य-स्वभाव है, क्योंकि अस्तित्व किसी अन्य निमित्त से उत्पन्न नहीं है, अनादि-अनंत एक-रूप प्रकृति से अविनाशी है। विभाव-भाव रूप नहीं, किन्तु स्वाभाविक भाव है, और गुण-गुणी के भेद से यद्यपि द्रव्य से अस्तित्व गुण पृथक् कहा जा सकता है, परन्तु वह प्रदेश-भेद के बिना द्रव्य से एक-रूप है। एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य की तरह पृथक् नहीं है, क्योंकि द्रव्य के अस्तित्व से गुण पर्यायों का अस्तित्व है, और गुण-पर्यायों के अस्तित्व से द्रव्य का अस्तित्व है। जैसेपीतत्वादि गुण तथा कुंडलादि पर्याय जो-कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सोने से पृथक् नहीं है, उनका कर्ता-साधन और आधार सोना है, क्योंकि सोने के अस्तित्व से उनका अस्तित्व है। जो सोना न होवे, तो पीतत्वादि गुण तथा कुंडलादि पर्याय भी न होवें, सोना स्वभाववत् है, और वे स्वभावाश्रित हैं। इसीप्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की अपेक्षा द्रव्य से अभिन्न जो उसके गुण पर्याय हैं, उनका कर्त्ता साधन और