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श्लो. : 3
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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अन्य को रुलाकर आया है, तुझे आने पर कष्ट है क्या ? ....जिससे अन्य के जाने पर तू रो रहा है। क्यों स्व-प्रज्ञा-विहीनता का परिचय लोक को दे रहा है कि मैं तो अल्पधी हूँ?.... व इसप्रकार तू अस्तित्व-गुण-शून्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यता के स्वभाव को भूलकर, रो-रोकर अपनी आत्म-ज्ञान-रहित प्रज्ञा का परिचय जगत् के मध्य दे रहा है और प्रज्ञावानों के द्वारा हास्य का पात्र बनता है। योगी पुरुष प्रत्येक क्षण अस्तित्व-गुण का ध्यान कर अपने परिणामों को प्रति-पल सँभालकर आत्म-तत्त्व में लीन रहते हैं। न हर्ष को प्राप्त होते हैं वे, न विषाद को ही प्राप्त होते हैं, वे तो आत्मानन्द में लीन रहते हैं। वहीं अज्ञानी पर के मिलाप के अभाव में विलाप करके संसार-चक्र के कारण कर्म-चक्र को प्राप्त होकर धर्म-चक्र-शून्य होकर यम के चक्र को प्राप्त होता है। जो भी परिणमन है, वह पर्याय है; द्रव्य की ध्रौव्यता तो ध्रौव्य है, अस्तित्व-गुण द्रव्य की त्रैकालिकता का ज्ञापक है, आत्मा लोक के किसी भी प्रदेश में रहते हुए, किसी भी पर्याय में अवस्थित होकर भी अपने ज्ञान-दर्शन-स्वभाव का त्याग नहीं करता। द्रव्य-व्यञ्जन-पर्याय जो विभाव-रूप हैं, वे-सब पुद्गल-रूप हैं, उनके मध्य रहते हुए भी आत्मा अपने जीवत्व-भाव के अस्तित्व का अभाव नहीं कर सका। पुद्गल जीव के साथ कर्म-रूप से अनादि से सम्बद्ध है, वह अपने पुद्गलत्व-भाव के अस्तित्व का अभाव नहीं कर सका। लोक में छ: द्रव्य अवस्थित हैं, एक-दूसरे में मिले होने पर भी स्व-अस्तित्व का विनाश नहीं होने देते, यह प्रत्येक द्रव्य का साधारण धर्म है; कहा भी गया है
अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगास-मण्णमण्णस्स। मेलंता वि य णिच्चं सगं सगभावं ण विजहंति।।
-पंचास्तिकाय, गा. 7 अर्थात् वे द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, अन्योन्य को अवकाश देते हैं, परस्पर 'नीर-क्षीर-वत' मिल जाते हैं, तथापि सदा अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। एकद्रव्य दूसरे द्रव्य-रूप लोक में कभी नहीं होते। अपने स्व-चतुष्टय में ही निवास करते हैं। यह व्यवस्था अनादि से सहज है, किसी अन्य-पुरुष-कृत नहीं है, व्यक्ति व्यर्थ में मोह-वश भ्रमित होकर जगत्कर्ता-हर्ता-रक्षक की कल्पना कर अपने सम्यक्त्व को