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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो . : 3
___ अहो प्रज्ञ! तुझे मालूम होना चाहिए कि जगत् में आत्म-द्रव्य का क्या कभी विनाश हुआ होगा...होगा क्या...अथवा हो रहा है? ....मात्र परिणमन है, इसे आत्मा का अभाव नहीं स्वीकारना। आत्मा त्रिकाल ध्रुव, अविनाशी है। क्षेत्र से क्षेत्रान्तर होना, -यह क्रियावर्ती शक्ति के प्रभाव से होता है, जीव स्व-क्रिया-वर्ती शक्ति से त्रिलोक का भ्रमण करता रहा है, जब-तक कर्मातीत-अशरीरी-शुद्ध-दशा को प्राप्त नहीं होता, तब-तक द्रव्य-क्षेत्र, काल, भाव, भव-संसार में पर्यटन करता है, पर उस पर्यटन-काल में कभी भी अस्तित्व-भाव का अभाव नहीं होता। मुमुक्षुओ! यहाँ पर अस्तित्व-गुण के कथन से यह ग्रहण करना कि अज्ञ जीव व्यर्थ में क्लेश को प्राप्त करता है, वह वस्तु के धर्म को तो नहीं बदल सकता, मोह-वश रुदन-करता है, शोक-सभा करके शोक मानकर असाता-वेदनीय-कर्म के आस्रव का कर्ता मात्र है, यह भी एक-तरह की शुद्धमूढ़ता ही है, न-कि विज्ञता, जो-कि मोह के वशवर्ती होकर समता-शून्य होते हुए रुदनकर स्व-पर को क्लेशित करता है। जगत् में किसी तत्त्व की देशना करनी हो, तो विद्वानों-त्यागियों को सर्वप्रथम चाहिए कि वे अस्तित्व-गुण का व्याख्यान करें, इस तत्त्व का संदेश बाल-गोपाल तक भेजना चाहिए। अनेकान्त-दृष्टि से जैसे लोक में अहिंसा पर विश्व-स्तर पर चर्चा होती है, उसी प्रकार सारे विश्व में अस्तित्व-गुण पर चर्चाएँ-गोष्ठियाँ होना चाहिए; प्रत्येक पुरुष के अंदर इस सूत्र का विषय स्वानुभूति में आना चाहिए। लोक में जो भी अनिष्ट दिख रहा है, वह अस्तित्व-गुण के रहस्य को न समझने के कारण ही हो रहा है। व्यक्ति पर्याय के परिणमन में आत्मा का अभाव मानकर रोना प्रारंभ कर देता है, और विवेक-ज्ञान से रहित होकर, अधीर होकर व्यर्थ में कर्म की संतति की वृद्धि कर लेता है।
अहो हंसात्मन्! जब-तक किसी जीव के साथ वर्तमान-पर्याय का संबंध है, तब-तक वात्सल्य-धर्म के साथ उसके साथ निवास कर लो, इसप्रकार की भावना लिये हुए स्व-पर-कल्याण की भावना के साथ जैसे-ही उसकी आयु पूर्ण होती है, तब वस्तु-स्वरूप का चिन्तवन करते हुए उसके अन्तिम संस्कार के समय स्वात्मा में समाधि-मरण के संस्कारों का आरोपण करो। व्यर्थ में दुःख करके स्व-पर के लिए अशुभ असाता-वेदनीय-कर्म का आस्रव न करो।
ज्ञानियो! इतनी शिक्षा ग्रहण अवश्य कर लीजिए कि हम बचा तो किसी को नहीं सकेंगे, पर जो-भी संबंधी या वस्तु आपसे पृथक् हुई है, वह लोकाकाश के बाहर नहीं गई, और तू-भी लोकाकाश में ही है, अन्य के लिए तू रुदन कर रहा है। तू-भी किसी