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श्लो . : 3
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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बंध पडि एयत्तं लक्खणदो होदि तस्स णाणत्तं । तम्हा अमुत्तभावो गंतो होदि जीवस्स।।
-पंचास्तिकाय, गा. 134 कर्म-बन्ध की अपेक्षा जीव के साथ पुद्गल का एकमेव सम्बन्ध है, परन्तु लक्षण की अपेक्षा दोनों में भिन्न-भिन्न-पना है, इसलिए एकान्त से जीव के अमूर्तिक-भाव नहीं हैं। कथञ्चित् मूर्तिक, कथञ्चित् अमूर्तिक-स्वभाव बन्ध और मुक्त की अपेक्षा से हैं। अतः मूर्तिक-धर्म भी आत्मा में घटित हो जाता है, जैसा कि आचार्य श्री नेमिचन्द सिद्धान्तिदेव ने भी कहा है
वण्ण-रस पंच गंधा दो फासा अट्ट णिच्छया जीवे। णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो।।
-द्रव्यसंग्रह, गा. 7 अर्थात् निश्चय से जीव में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श नहीं हैं, इसलिए जीव अमूर्त है और बंध से व्यवहार की अपेक्षा करके जीव मूर्त है। ___ इसीप्रकार अचेतन-धर्म भी जीव में घटित होता है, एक दृष्टि असद्भूत-नय की है, जिसके अनुसार जीव भी अचेतन-स्वभावी घटित होता है, सूत्र देखिएजीवस्याप्यसद्भूत-व्यवहारेणाचेतनस्वभावः ।
-आलापपद्धति, सूत्र 162 अर्थात् असद्भूत-व्यवहार-नय से जीव अचेतन-स्वभावी है। दूसरी दृष्टि प्रमेयत्वादि धर्मों की अपेक्षा जीव चेतन-स्वभावी है, इसप्रकार दसों सामान्य धर्म एक आत्मा में घटित हो जाते हैं, नय-सापेक्षता से समझना चाहिए।
अस्तित्व-गुण- प्रथम गुण पर विचार करें, तो जो द्रव्य की कालिकता का ज्ञापक है, वह अस्तित्व-गुण है। वस्तु की सत्ता सनातन है, इसका भी अभाव नहीं होता, वह हमेशा अपने स्वभाव में परिणमन करता है, सम्पूर्ण द्रव्यों की सत्ता अनादि है, जीव-द्रव्य भी अनादि ही है; कहीं कभी उत्पन्न नहीं हुआ, न कभी नाश को प्राप्त होगा, अस्तित्व-भाव से अनभिज्ञ जीव खेद को प्राप्त होता है, तब-जब कोई जीव स्थानान्तरित हो अथवा पर्यायान्तरित हो और हाय-हाय करके वह असाता-वेदनीय के कर्मास्रव को प्राप्त होता है।