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४. नहीं तत्त्व-तरलित मती, रती न विरती - हेत ।
श्रमण-सती संगति नहीं, नहीं सुमति - संकेत ।। ५. सुगति-प्रीति दुर्गति प्रति, नहीं भीति तिलमात । आभ्यंतर आमय तदा, क्यूं प्रशांत हो भ्रात! ( युग्म) ६. बिन स्वारथ पर हित प्रति, विघ्नकरण सोल्लास । कविजन तिरै नाम री, अब लों करै तलाश' ।। ७. लोकोत्तर लौकिक उभय, सुखमय जीवन हार । जीवै बण निर्जीव-सो, आदत स्यूं लाचार ।। सोरठा
८. बाधक बण विद्रोह, खूब उठायो क्षुद्र जन । इत उत ऊहापोह, राजभवन लग संचय । । ६. चैनसिंह राठौड़, वर ठाकुर पोखरण रा ।
थिर दिवान री ठोड़, घणां लोक बहकाविया । । १०. आखिर दीक्षा-रोक करणै की-सी धमकियां,
आती लोक विलोक, महता कियो मुकाबलो ।। ११. श्रावक प्रमुख वकील, महता प्रतापमल्लजी ।
कानां ठोकी कील, सुण चोकन्ना चैनसिंह ।। १२. धर्मनीति-अविरुद्ध, दीक्षा तेरापंथ री ।
रुकी न रुकसी रुद्ध, करे किती करतूत को ।। १३. जदि रोकण रो जोश, तो मशीनगन मेलज्यो ।
राख हियै में होश, हाजर प्राण हजार रा । । १४. तरुण बाल-गोपाल, जब लग जीवित संघ रा ।
तब लग दीक्षा-टाल, जोस्यां नहिं जोधाण में ।। १५. सुण प्रताप-वच साफ, ठाकुरसा ठंडा हुआ ।
आखिर तो इंसाफ, सच्चाई रो बल प्रबल ।। १६. सारो शांत विरोध, वातावरण बण्यो विशद । जबर संघ में जोध, समय-समय श्रावक हुया ।।
१. देखें प. १ सं. १६
६० / कालूयशोविलास-२