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१६. जो भुक्त-भोग वैरागी हो, आंतरिक वृत्तियां जागी हो।
जिणरी शिव स्यूं लिव लागी हो, अयि पंथपते! २०. बो बणो बणाओ संन्यासी, चौथै आश्रम को अधिवासी।
सारां रो आशीर्वर पासी, अयि पंथपते! 'पूज्य अब प्रत्युत्तर फरमायै, नाथ अब प्रत्युत्तर फरमावै।
सुणों पृच्छक! सहज स्वभावै ।। २१. आगम अनुभव तर्क युक्ति स्यूं, सत्य स्वरूप सुझावै।
यूं अध्यात्म भाव रो अंकन टंकन प्रयतन ठावै।। २२. पूर्वाग्रह-अग्रस्त-मना, मध्यस्थ भाव अनुभावै।
जो जिज्ञासू तत्त्व-पिपासू, मन आमोद बढ़ावै ।। २३. संयम रो संबंध सही संस्कारां स्यूं,
नहिं वय रो अनुबंध न बाह्य विचारां स्यूं। विचारां स्यूं, युगधारा स्यूं, बारां स्यूं थारा-म्हारां स्यूं,
हो जी! थे तो समझो सुज्ञ! सुजाण! विमुक्त विकारां स्यूं।। २४. जागै जब संस्कार कहो कुण रोक करे?
भाव-उदधि रो ज्वार स्वयं संसार तरे। संसार तरे, सब विघन टरे, वय-विधा-वैभव सकल परे,
हो जी! थे तो समझो सुज्ञ! सुजाण! अनाग्रह वृत्ति अरे।। २५. सदा अतीत अतीत भविष्य भविष्य रहै,
काई होणो शेष रेस भगवान लहै। भगवान लहै, सुख शांत सहै, उत्तम उत्तमता नहीं जहै,
हो जी! थे तो समझो सुज्ञ! सुजाण! विचारां बाढ़ बहै।। २६. भर-जोबन वार्धक्य आवणो सो आसी,
वातावरण विशुद्ध बणायो ही जासी। बण जासी, क्यूं फिर गिर पासी, क्यूं खासी विषयां री फांसी?
हो जी! थे तो समझो सुज्ञ! सुजाण! अंत बो पिछतासी।। २७. देखावटी विराग कहो कब तक टिकसी? धिंगाणै रो धर्म धिकायो ही धिकसी। जो धिकसी, बहतो बिकसी, क्यूं संकट-आगी में सिकसी?
हो जी! थे तो समझो सुज्ञ! सुजाण! झुकासी सो झुकसी।। १. लय : आयत मेरी गलियन में गिरधारी २. लय : धन-धन भिक्षु स्याम
८८ / कालूयशोविलास-२