________________
३०. समंदड़ी श्रावक बिरधोजी, गुरु-इंगित अपणावै रे। जा पचपदरै पिता-पुत्र ‘गण-बाहिर' घोष सुणावै रे।।
लावणी छंद ३१. जोधाणै रा श्रावक' पचपदरै आया,
पोथी-पानां गण रा कब्जे कर पाया। सूंप्या जा सती सोहनांजी नै सारा,
अपणै शासण री आ ही है दृढ़ धारा।। ३२. रोषारुण ‘लच्छी' हाकम पास पुकारै,
तब हंसराजजी सिंघी स्वयं विचारै। जो संघ-बहिष्कृत गण-मर्यादा लांघे,
संघीय पुस्तकां किण मुंढे स्यूं मांगै? ३३. बोलै हाकम, झूठो धणियाप करो क्यूं?
संघीय पुस्तकां लेवण आश धरो क्यूं? म्हांनै सरकार अगर खारिज कर डारै,
म्हारै अन्याय अनय अनुचित व्यवहारै ।। ३४. दफ्तर-फाइल ले साथ चला बण स्वामी,
तो हुवै जुर्म हथकड़ियां पडै न खामी। दीवानी दावो करो, अगर है लड़णो, दुनियादारी रै दांवपेच में पड़णो।।
आनंद आवै रे, आनंद आवै रे।
३५. हाकम स्यूं हताश हो हाल्या, संजम सहज गमावै रे।
कल्पवृक्ष संकल्पपूरणो, क्यूं रतिहीण रखावै रे।। ३६. कामदुधा सुरभी करभी-घर क्यूंकर कहो टिकावै रे।
मणि चिंतामणि मूढशिरोमणि कर ग्रहि काग उड़ावै रे ।।
१. प्रतापमलजी महता, माणकचंदजी भंडारी आदि २. जोधपुर के मुसद्दी बच्छराजजी सिंघी के सुपुत्र ३. लय : दारू दाखां रो ४. देखें प. १ सं. ३
उ.४, ढा.१/७१