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२२. मोनै 'मरु' 'मरु' कहि बतळावै हो, कइ दिल-दावै हो,
__गणिवर! कहै मरुदेश-मरीचिका। निरजल थल कहि गावै हो, मन सुख पावै हो,
गणिवर! जदपि बहै जल-वीचिका।। २३. कइ जंगल कहि-कहि जावै हो, जी घबरावै हो,
गणिवर! नाम निसुण मरुदेश रो। म्हारो दिलड़ो खूब दुखावै हो, किलबिललावै हो,
गणिवर! करुण दृश्य लख क्लेश रो।। २४. पिण सकल विकल-दिल भूलूं हो, मैं घणि फूलूं हो,
गणि! लख तोरो तेरापंथ रो। कर याद हरष-रस झूलूं हो, सब उन्मूलूं हो,
गणिवर! दुख जग-दंत-उदंत रो।। २५. अहो! मैं वसुगर्भा बाजी हो, दिलड़ो राजी हो,
गणिवर! जननी जुग-नर-रत्न' री। कोइ जाणो या मत ना जी हो, सम्मति साझी हो,
गणिवर! है नहिं बात प्रयत्न री। २६. पर बीता वर्ष अठारै हो, बिन धणियां रै हो,
गणिवर! कुण संभारेला अबै? यूं पुहवी करत पुकारै हो, दिल अवधारै हो,
गणिवर! महर लहर करणी फबै ।। २७. थळियां में ठाट लगाया हो, घन बरसाया हो,
गणिवर! घर-घर दूधां मेहड़ा। अब मरुधर-नर ललचाया हो, हृदय उम्हाया हो,
गणिवर! मैं पिण देखू एहड़ा।। आनंद आवै रे, आनंद आवै रे। २८. तिण चउमासे रिखीराम-लच्छी सुत-तात विभावै रे।
अहंभाव उच्छृखलता स्यूं, प्रत्यनीकता पावै रे।। २६. सुणी श्रावकां स्यूं शासणपति, इचरज नहीं उपावै रे।
भैक्षवगण मर्याद-विराधक, सदा स्वयं सीदावै रे।। १. भिक्षु स्वामी और जयाचार्य २. लय : दारू दाखां रो
... ७० / कालूयशोविलास-२