________________
५. जिण कारण पर-दरसणी, नित्यानित्यैकान्त । मानै, तिण रो मूल ही, त्रिपदी हरै नितान्त ।।
जिस कारण से अन्य दार्शनिक एकांत नित्यवाद और एकांत अनित्यवाद को मानते हैं, त्रिपदी ने उस मूल कारण का ही नितांत उन्मूलन कर दिया ।
६. सकल सत्त्व मांही सझै, निज नित्यानित्यत्व । यतो न विघटै संघटै, वस्तु स्वत्व अपरत्व ।।
जो अस्तित्व है, उसमें अपना नित्यानित्यत्व है - वह नित्य भी है और अनित्य भी है । इसलिए वस्तु का स्वत्व विघटित नहीं होता और अन्यत्व संघटित नहीं होता । तात्पर्य की भाषा में - वस्तु का स्व की अपेक्षा से अस्तित्व है और पर की अपेक्षा से नास्तित्व है ।
७. बिन त्रिपदी सपदि ग्रहै, वस्तु व्रात विरंग । शशक-शृंग वन्ध्या-तनय, गगन- कुसुम रो रंग ।।
त्रिपदी के बिना वस्तु समूह शीघ्र ही विरंग हो जाता है- अस्तित्वहीन हो जाता है। उसकी तुलना खरगोश के सींग, वन्ध्यापुत्र और आकाश कुसुम से की जा सकती है, जिनका कोई अस्तित्व नहीं है ।
८. याम-याम निज नाम सम, हृदय-धाम में खाम ।
शुभ त्रिपदी गणि-गुणनिधि, समरूं बिन विश्राम ।।
मैं इस शुभ त्रिपदी को हृदयमन्दिर में बिठाकर उसका प्रति प्रहर अपने नाम के समान अविराम स्मरण करता हूं। वह गणी (आचार्य) के लिए गुण की निधि है ।
६. तुरत तुरीयोल्लास रो, वरणूं वरणन व्यास । मन-तरंग उत्संग नै, मिलै खास आश्वास ।।
त्रिपदी की स्मृति के पश्चात मैं अविलम्ब चौथे उल्लास का विस्तार से वर्णन कर रहा हूं, जिससे उछलती हुई मन की तरंग को आश्वासन मिल सके ।
१०. गुरु- व्याख्यान महानतम कर्म-निर्जरण- जोग ।
श्रोता श्रुतिरसिका हुवै तो सार्थक उद्योग ।।
गुरु के चरित्र का व्याख्यान करना महान कर्म - निर्जरण का प्रयोग है। यदि श्रुतिरसिक श्रोता मिल जाए तो उद्योग की सार्थकता बढ़ जाती है।
उल्लास : चतुर्थ / ६७