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मंगल वचन
दोहा
१. स्वेष्ट-सिद्धि में श्रेष्ठतम, श्रुत-शतांग-सव्येष्ठ।
परम-प्रेष्ठ यथेष्ट गुण, नमो गणभृतां ज्येष्ठ।। मैं गणधरों में ज्येष्ठ गणधर गौतम को नमस्कार करता हूं, जो अपने इष्ट की सिद्धि के लिए श्रेष्ठतम हैं, श्रुतरूपी रथ के सारथि हैं, परम आकर्षण के केन्द्र हैं और जिनमें वांछनीय सभी गुण विद्यमान हैं।
२. वीर-वदन-गिरि-गर्भजा, श्रुत-स्रोत शुभवेश।
गौतम-उदर-पयोनिधि, त्रिपदी नदी प्रवेश ।। भगवान महावीर का वदन रूपी पर्वत जिसका उद्गम है, श्रुत जिसका शुभ परिवेश वाला स्रोत है, उस त्रिपदी (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य, तीन पदों वाली) नदी ने गणधर गौतम के उदर रूपी समुद्र में प्रवेश किया।
३. प्रवही पुनि तब ही ग्रही, रयणराशि रो रूप।
सायर-कायर-लास्य स्यूं, गोयम-आस्य अनूप ।। __वह पुनः गौतम के अनुपम मुख से प्रवाहित हुई, तब उसने रत्नराशि का रूप ले लिया। जैसे समुद्र की कातर तरंगों के नर्तन से समुद्र का पानी बाहर प्रवाहित होता है।
४. त्रिभुवन-अवगाहन करै, त्रिपदे ज्यूं बावन्न।
त्रिकालीन वस्तुस्थिति, समीचीनताऽऽपन्न।। जैसे वामनावतार ने बलि राजा से तीन पांव जमीन मांगकर तीनों लोकों का अवगाहन कर लिया, वैसे ही उस त्रिपदी ने त्रिकालीन वस्तुस्थिति का समीचीन रूप से अवगाहन कर लिया।
१. देखें प. १ सं. १
६६ / कालूयशोविलास-२