________________
चतुर्थ उल्लास
शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम् यो जैनाध्वधुरीण ईप्सितमणिं ध्यायन्ति यं धीधनाः, येनैवात्र पवित्रितात्मसरणी यस्मै न कैः स्पृह्यते । यस्मादाविरभूद् विबोधविततिर्यस्यानुभावो महान्, यस्मिन् शासति बाढ़मुन्नतिरतस्तं मुलसूनुं श्रयें।।
जो जैनशासन की धुरी के वाहक रहे हैं, प्रबुद्ध वर्ग जिनको चिंतामणि रत्न के रूप में जानते हैं, जिनके द्वारा आत्मवाद का पथ पवित्र हुआ, जो सबके लिए स्पृहणीय रह चुके हैं, जिनसे ज्ञान की विविध धाराएं प्रवाहित हुईं, जिनका प्रभाव महान है और जिनकी अनुशासना में बहुत प्रगति हुई, मैं उन कालूगणी की शरण स्वीकार करता हूं।
उल्लास : चतुर्थ । ६५