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________________ में विवेचित हैं । बीदासर में स्थिरवासिनी मातुश्री ने कालूगणी के स्वर्गवास का संवाद सुना तो उसका तात्कालिक असर होना स्वाभाविक था । उन्होंने स्मृतियों के झरोखे से अतीत में झांककर कहा- मुझे निश्चित विश्वास था कि अपने पुत्र गुरु कालूगणी के हाथों में मेरी संयम - यात्रा सम्पन्न होगी, किंतु मेरे सामने उनका स्वर्गवास हो गया। स्वप्न में भी जो नहीं सोचा था, वह आज घटित हो गया । लगता है कि मेरे इस लम्बे आयुष्य ने ही मुझे यह दिन दिखलाया है। कुछ क्षणों की विह्वलता के बाद मातुश्री के चिंतन की धारा ने दिशा बदल ली। उन्होंने सोचा -रे चेतन ! तू क्यों घबरा गया। ये सारे सुख-दुःख कल्पित हैं । संयोग के साथ वियोग की अनिवार्यता है । आज मुझे पुत्र का वियोग हुआ है, यह सचाई है । पर मैं ही क्या, सारा संघ इस व्यथा को झेल रहा है। फिर मेरे मन में यह कमजोरी क्यों ? मैं नरसिंहजी की पुत्री हूं और नर - सिंह (कालूगणी) की माता हूं। मन में किंचित भी कमजोरी मेरे लिए त्रपास्पद है । इस प्रकार चिंतन-धारा बदलकर मातुश्री ने अपना मन मजबूत कर लिया । उधर गांव-गांव में एक अफवाह फैल गई कि भाद्रपद शुक्ला सप्तमी से माजी छोगांजी ने भोजन छोड़ दिया है। कुछ लोग कहने लगे कि उन्होंने संथारा स्वीकार कर लिया है अथवा करने वाली हैं। क्योंकि पुत्र के विरह में वे कब तक जीवन धारण कर पाएंगी ? अब तक उनके पास वियोगी व्यक्ति या परिवार जाते, उन्हें वे मनोबल मजबूत रखने की प्रेरणा देती थीं, आज उनकी सारी बातें कसौटी पर चढ़ी हुई हैं। इस प्रकार की अफवाहों ने अनेक लोगों को आशंकित कर दिया । माजी की मनःस्थिति को परखने के लिए वे बीदासर जाने लगे। लोग उन्हें कई प्रकार के प्रश्न पूछते । मातुश्री हर प्रश्न का निर्भीकता के साथ जवाब देतीं। वे कहतीं - 'भाई! कालूगणी जैसे पुत्र के वियोग ने एक बार मुझे व्याकुल बना दिया। किंतु मैंने अपने मन को अच्छी तरह समझा लिया । अब मैं गुरुदेव कालूगणी के उत्तराधिकारी तुलसीगणी के नाम का स्मरण करूंगी। आज तुलसीगणी ही मेरे लिए कालूगणी, डालगणी, माणकगणी, मघवागणी, जयाचार्य आदि सब कुछ हैं । इस संघ में कहीं कोई कमी नहीं है। जब तक आयुष्य है, मैं शांति के साथ सा ना करूंगी। मेरी इच्छा है कि अन्तिम समय में अनशन कर आराधक पद प्राप्त करूं ।' तो कुछ इधर-उधर की अनर्गल बातें सुन मातुश्री से साक्षात्कार करने के लिए आने वाले लोग उनकी स्पष्टोक्ति सुन चकित रह गए। उन्होंने कहा - ' - 'सुना ५४ / कालूयशोविलास - २
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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