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युवाचार्य - नियुक्ति - पत्र लिखा । सब संतों को याद किया । साध्वियां पहुंच गईं। श्रावक-श्राविकाओं की भी अच्छी उपस्थिति थी । चतुर्विध संघ के सामने कालूगणी द्वारा लिखित नियुक्ति पत्र मुनिश्री मगनलालजी ने खड़े होकर पढ़ा। कालूगणी ने अपने हाथ से उसे मुनि तुलसी को सौंपा और कुछ समय पहले ओढ़ी गई नई पछेवड़ी उतार कर अपने हाथों से मुनि तुलसी को ओढ़ा दी। जयनारों से रंग-भवन गूंज उठा। मुनिश्री मगनलालजी ने एक दोहा बोलकर कृतज्ञता ज्ञापित की।
कालूगणी द्वारा मुनि तुलसी को युवाचार्य पद सौंपने के बाद उन्हें जो अनुभूति हुई, उसे प्रस्तुत गीत में कुछ प्रतिमानों में गुंथा गया है, जैसे-एक रजकण को
बनाना, पानी की बूंद को मोती बनाना, मिट्टी के ढेले को कामकुम्भ में रूपायित करना, पाषाणखण्ड को प्रतिमा बना देना, पुष्प को राजा के मुकुट पर लगाना, बूंद को समुद्र बनाना आदि । इसी प्रकार कवि ने कुछ कथानकों के माध्यम से कालूगणी के कर्तृत्व को उजागर किया है ।
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दसवें गीत में युवाचार्य - नियुक्ति के संवाद का प्रसारण, प्रातःकालीन वन्दना - विधि और युवाचार्य के संदर्भ में संघीय रीति-नीति आदि का निरूपण है । संवाद - प्रसारण का काम गणेशदासजी गधैया ने किया, वन्दना - विधि स्वयं कालूगणी ने बताई और रीति-नीति से संबंधित जानकारी मुनिश्री मगनलालजी ने दी 1
युवाचार्य की नियुक्ति के बाद कालूगणी ने आज्ञा आलोयणा, गत दिन वार्ता श्रवण, प्रवचन, हाजरी आदि की पूरी जिम्मेदारी युवाचार्य को सौंप दी। संवत्सरी महापर्व एकदम सामने आ गया तो शारीरिक दृष्टि से विपुल वेदना की स्थिति में भी कालूगणी ने केशलोच करवाकर दृढ मनोबल का परिचय दिया ।
कालूगणी के निर्देश से युवाचार्य तुलसी ने जयाचार्य रचित आराधना सुनाई । सायंकालीन प्रतिक्रमण सुनाने के बाद दशवैकालिक सूत्र के आधार पर महाव्रतों का उच्चारण कराया। कालूगणी स्वयं भी नमस्कार महामंत्र का जाप करते रहे । उन दिनों बाहर से हजारों व्यक्ति दर्शन करने आए। उनमें विशिष्ट वैद्य, हकीम और डॉक्टर भी थे । उन्होंने अपनी-अपनी औषधि का उपयोग कर चिकित्सा करने का अनुरोध किया, किंतु कालूगणी ने किसी का अनुरोध स्वीकार नहीं किया । ऐसे दुःसह कष्ट के समय नियमों के प्रति इतनी दृढ़ता देख सब चिकित्सक निर्वाक हो गए।
ग्यारहवें गीत में भाद्रपद शुक्ला तृतीया की रात्रि का वर्णन हे। रात्रि में लगभग एक बजे कालूगणी के श्वास का वेग बढ़ा। उसे देखकर सब घबरा गए । डॉक्टर और वैद्य बोले- अब गुरुदेव का शरीर बचना मुश्किल है। पंडित रघुनन्दनजी
कालूयशोविलास-२ / ४६