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बल पर प्रौढ़ बन जाता है और प्रतिभा एवं विवेक के अभाव में स्थविर भी बाल बन जाता है।' . प्रस्तुत गीत के अग्रिम भाग में मुनि तुलसी की व्यथा-कथा में आशा की एक पतली-सी रेखा भी उभरी है। जहां उन्होंने कामना की है कि कालूगणी पुनः स्वास्थ्य लाभ कर उन्हें एक बार सेवा का मौका प्रदान करें। कालूगणी ने भी अपने प्रिय शिष्य को आश्वस्त करके भविष्य में करणीय कुछ कार्यों का संकेत देकर गुरु-शिष्य की एकात्मकता का दृश्य उपस्थित कर दिया।
सातवें गीत में पूज्य कालूगणी द्वारा अमावस्या की रात्रि में प्रदत्त शिक्षा का संकलन है। पाक्षिक प्रतिक्रमण और खमत-खामणा का कार्य सम्पन्न होने के बाद मुनिश्री मगनलालजी ने कालूगणी से सामूहिक शिक्षा के लिए अनुरोध किया।
शिक्षा प्रदान करने से पहले कालूगणी ने चतुर्विध धर्मसंघ के सौभाग्य की सराहना की। पूर्ववर्ती आचार्यों के कर्तृत्व का उल्लेख किया और बिना किसी संकेत के भावी आचार्य के लिए शिक्षा दी
* संघ-सुरक्षा का लक्ष्य सर्वोपरि रखना। * पक्ष-विपक्ष की भावना से दूर रहकर संघ का विकास करना। * मर्यादानिष्ठ और आज्ञानिष्ठ साधु-साध्वियों को संयम का आश्वासन देते
रहना। * संघ में विनयी, विज्ञ और विवेकी साधु-साध्वियों की कमी न हो जाए,
इस बात का ध्यान रखना। * स्वच्छन्दाचारी, अविनयी, आग्रही तथा संघ की मर्यादा और व्यवस्था की
अवहेलना करनेवालों का प्रतिकार करना। * प्रमादी व्यक्तियों को प्रायश्चित्त देकर तथा उनका विवेक जगाकर ठीक
करना, ऐसा संभव न हो तो उनका संघ से संबंध-विच्छेद कर देना। * अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक रहना, अभय होकर काम करना तथा
संघ-विकास के लिए स्वतंत्र चिंतन करते रहना। शिक्षा का एक अध्याय सम्पन्न कर कालूगणी ने पूरे संघ को सामने रखकर कहा* संघ में आचार्य अवस्था में छोटे हों या बड़े, उनके प्रति श्रद्धा-समर्पण
के भाव रखना। * आचार्य की आज्ञा का अखण्ड रूप में पालन करना, प्राण भले ही जाए,
पर आज्ञा का भंग न हो। * अपनी साधना एवं महाव्रतों की आराधना के प्रति सजग रहना।
कालूयशोविलास-२ / ४७