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________________ लोग दर्शन करने आने लगे। गुरु-दर्शन की खुशी के बावर कालूगणी की अस्वस्थता देख आगंतुक लोगों के मन खिन्न हो गए। ___डॉक्टर अश्विनीकुमार की मनःस्थिति विचित्र थी। एक दिन मुनि श्री मगनलालजी को अकेला देख डॉक्टर द्रवित मन से बोला-'मगनलालजी स्वामी! मैं अपने मुंह से ऐसी बात कहूँ, मुझे अच्छा नहीं लगता। पर लगता है कि अब गुरुदेव का शरीर स्वस्थ होना असंभव नहीं तो दुःसंभव अवश्य है।' मुनि श्री मगनलालजी ने कहा-'बात ठीक है, पर इसकी चर्चा किसी के सामने मत करना। क्योंकि इस आघात को सहना सरल नहीं है। अत्यधिक सावधानी के बावजूद सेठ ईशरचन्दजी चौपड़ा को उक्त बात की भनक लग गई। वे डॉक्टर पर बहुत नाराज हुए। उनकी नाराजगी इतनी बढ़ी कि दोनों के बीच एक दरार-सी पड़ गई। किंतु जब डॉक्टर का कथन यथार्थ प्रमाणित हो गया तो चौपड़ाजी के मन में डॉक्टर के प्रति विशेष अनुराग बढ़ गया। कालूगणी को भीलवाड़ा पधारे हुए दो सप्ताह हो गए, पर स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। विहार का प्रसंग उपस्थित होने पर वहां के लोग बोले-'शरीर की स्थिति विहार की अनुकूल नहीं है। आप यहीं चातुर्मास करें। व्यवस्था में किसी प्रकार की कमी नहीं रहेगी।' भीलवाड़ा वासियों की प्रार्थना के उत्तर में कालूगणी ने कहा-'व्यवस्था आदि को लेकर मेरे मन में कोई विचार नहीं हैं मेरा एक ही लक्ष्य है कि जब तक शरीर में थोड़ी भी शक्ति है, मुझे गंगापुर में चातुर्मास करने का वचन पूरा करना है।' शारीरिक असह्य वेदना की उपेक्षा करके कालूगणी ने आषाढ़ शुक्ला तृतीया को भीलवाड़ा से विहार किया। मेवाड़ का पथरीला रास्ता और चलने की अक्षमता के बावजूद साधुओं के कंधे का सहारा लेकर कालूगणी चले। मार्गवर्ती छोटे-छोटे गांवों में पड़ाव करते हुए वे आषाढ शुक्ला एकादशी के दिन गंगापुर के निकट पहुंच गए। प्रस्तुत उल्लास का यह अंतिम गीत पूज्य कालूगणी के विलक्षण मनोबल की जीवन्त कहानी है। छठा उल्लास छठे उल्लास के प्रथम संस्कृत श्लोक में कालूगणी को सूर्य से उपमित किया गया है। वह सूर्य ऐसा है, जो न कभी उदित होता है, न अस्त होता है और न अंधकार का विषय बनता है। ४२ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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