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हजार वर्षों की
अवधि में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहे हैं। इसमें क्षेत्र, काल, धैर्य, हनन और क्षमता का ह्रास एवं विकास प्रमुख निमित्त बना है । इन बदली हुई परिस्थितियों में भी कालूगणी ने जिस दृढ़ता का परिचय दिया, एक आदर्श उपस्थित कर दिया |
चिकित्सा के बारे में कालूगणी के दृढ संकल्प ने डॉक्टरों को अभिभूत कर दिया। एक प्रकार से निरुपाय होकर वे बोले - ' हमारा निवेदन इतना ही है कि अविलम्ब ऑपरेशन हो जाना चाहिए, अन्यथा रस्सी ऊपर चढ़ती जाएगी। इससे शरीर में पोइजन की आशंका बन रही है ।'
मुनिश्री मगनलालजी प्रारंभ से ही फुंसी की भयंकरता का अनुभव कर रहे थे। डॉक्टरों के परामर्श पर उन्होंने उसी दिन ऑपरेशन करने का निर्णय ले लिया । डॉक्टर के औजार काम में नहीं लेने का निर्णय भी पक्का था, अतः कलम निकालने वाले चाकू से हथेली के पृष्ठभाग में एक इंच गहरा चीरा लगाया गया। घाव की सफाई कर उसमें गोज भरी गई। डॉक्टरों की उपस्थिति में यह सारा काम मुनिश्री मगनलालजी और मुनिश्री चौथमलजी ने किया ।
मंडपिया गांव से विहार कर कालूगणी भीलवाड़ा पधार गए। वहां चिकित्सा का क्रम जारी रहा। प्रतिदिन घाव की सफाई कर पट्टी करने की जिम्मेदारी मुनिद्वय संभालते । शेष कार्यों के संपादन में सभी साधु-साध्वियों ने पूरी तत्परता रखी । नर्सों से भी अधिक स्वच्छता और जागरूकता उल्लेखनीय रही।
सोलहवें गीत में एक बार फिर कालूगणी का प्रखर मनोबल मुखर हुआ है। प्रारंभिक पद्यों में बताया गया है कि सरकारी डॉक्टर नंदलालजी, कलकत्ता से समागत डॉक्टर अश्विनीकुमार, लाडनूं से समागत डॉक्टर विभूतिभूषण और ईडर स्टेट से समागत डॉक्टर मालमसिंह डोसी (उदयपुर) की देखरेख में कालूगणी का उपचार चलने लगा ।
कुछ समय बाद डॉक्टर अश्विनीकुमार का ध्यान इस ओर केन्द्रित हुआ कि चिकित्सा की उचित व्यवस्था के बाद भी घाव ज्यों का त्यों है, इसका कोई कारण होना चाहिए। डॉक्टर को शूगर की आशंका थी, जो सही निकली। डॉक्टर के पास दवा थी । उसने दवा लेने का अनुरोध किया । पर कालूगणी एक ही बात पर अडिग थे कि डॉक्टर उनके लिए आया है, इसलिए वे आनीत दवा का उपयोग नहीं करेंगे। मधुमेह की बीमारी को बहुत साधारण रूप में लिया गया, एक दृष्टि से यह बड़ी भूल हो गई । पर संतों की गति विलक्षण होती है । वे सदेह होते हुए भी विदेह बन जाते हैं ।
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कालूगणी की अस्वस्थता के संवाद जहां-जहां पहुंचे, वहां के प्रमुख प्रमुख
कालूयशोविलास-२ / ४१