________________
पूर्व ही कालूगणी के बाएं हाथ की तर्जनी अंगुली में एक हुई थी। मुनि मगनलालजी ने उसे शूल से कुरेद दिया। इससे फुंसी बढ़ गई। मुनिश्री को फुंसी की भयंकरता का अहसास हो गया। उस अहसास के अनुरूप वेदना बढ़ने लगी । कालूगणी चित्तौड़ पधारे। वहां गंगापुर के श्रावकों ने आगामी चातुर्मास के लिए बलवती प्रार्थना की। उन्हें चातुर्मास का वरदान मिल गया। गंगापुर का श्रावक समाज पचीस वर्षों से कालूगणी को चातुर्मास की प्रार्थना कर रहा था । उसकी प्रतीक्षा सफल हो गई। पूरे मेवाड़ में हर्ष की लहर छा गई ।
इधर चातुर्मास की घोषणा, उधर अंगुली में व्रण की जटिलता । हाथ में शोथ और पीड़ा की प्रबलता से चलना, बैठना और सोना, सब कुछ कठिन हो गया। फिर भी कालूगणी का मनोबल अडिग था । साधु-साध्वियों की विशिष्ट सेवा के बावजूद वेदना कम नहीं हुई । तीव्र वेदना को समभाव से सहन करते हुए कालूगणी हमीरगढ़ पधारे। वहां मदनसिंहजी मुरड़िया (उदयपुर) ने दर्शन किए। उन्होंने शीघ्र ही भीलवाड़ा पधारकर चिकित्सा कराने का अनुरोध किया । हमीरगढ़ से विहार कर कालूगणी 'मंडपिया' पधारे। वहां मुरड़ियाजी के साथ दो डॉक्टर आए। हाथ की स्थिति देख उन्होंने ऑपरेशन की अनिवार्यता बताई। क्योंकि अंगुली से लेकर कलाई तक रस्सी हो गई थी ।
चौदहवां गीत पूज्य कालूगणी के साहस की जीवंत कहानी कहता है। डॉक्टरों द्वारा ऑपरेशन का निवेदन करने पर कालूगणी बोले - 'मंडपिये जैसे छोटे गांव में गर्म पानी, औजार, औषधि, डॉक्टर आदि का सुयोग मिलना मुश्किल है । भीलवाड़ा यहां से निकट है । हमें भीलवाड़ा आना ही है।' कालूगणी आगे कुछ कहते, उससे पहले ही डॉक्टर बोल उठे - 'गुरुदेव ! भीलवाड़ा दो दिन बाद जाना होगा । तब तक स्थिति और अधिक जटिल हो जाएगी। अब एक मिनट भी खोना ठीक नहीं है । चिकित्सा के लिए हम आपके चरणों में उपस्थित हैं । औषधि और औजारों के पेटी सहज रूप से हमारे पास है । आप हमें इजाजत दीजिए।'
एक ओर आग्रह एवं विनम्रता से भरा डॉक्टरों का अनुरोध, दूसरी ओर कालूगणी का मजबूत मनोबल । इस संदर्भ में कालूगणी और डॉक्टरों के बीच हुए संवाद को पढ़ने मात्र से रोमाञ्च हो जाता है । प्रबल अनुरोध के बावजूद कालूगणी ने विधि-विधान से हटकर किसी प्रकार की चिकित्सा स्वीकार नहीं की । उस दृढ़ता के सामने डॉक्टर पानी-पानी हो गए।
पन्द्रहवें गीत के प्रारम्भिक पद्यों में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का विवेचन है । एक समय था, जब साधु किसी प्रकार की चिकित्सा नहीं कराते थे । कालांतर में अविधि से होने वाली चिकित्सा के लिए प्रायश्चित्त का विधान हुआ । ढ़ाई
४० / कालूयशोविलास-२