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________________ पारंपरिक दोनों दृष्टियों से उनकी धारणा गहरी थी। शासन-सेवा के किसी भी कार्य में वे तत्पर रहते ही थे, चर्चा के प्रसंग में भी आगे रहते थे। वि. सं. १६७२-७३ में आचार्य श्रीलालजी का थली (सरदारशहर) आगमन हुआ। गोठीजी उनके साथ चर्चा करने गए। वहां मुनियों के साथ बीकानेर से समागत कुछ श्रावक भी उपस्थित थे। गोठीजी ने बातचीत के संदर्भ में आचार्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा-'शास्त्रों में आचार्य को कुत्तियावण की उपमा दी गई है।' गोठीजी की यह बात सुनते ही श्रावक चौकन्ने हो गए। उन्होंने इस कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा-'आपने आचार्यश्री के लिए इतने हीन शब्द का प्रयोग कैसे किया? आचार्य आचार्य होते हैं। उन्हें कुत्तिया कहना कहां तक उचित है?' गोठीजी थोड़ी देर मौन रहे। जब श्रावक लोग इस शब्द-प्रयोग को लेकर काफी उलझ गए तो वे बोले-'श्रावको! आप समझते नहीं। मैंने कुत्तियावण-कुत्रिकापण की शास्त्रीय उपमा का उपयोग किया है, जो कि बहुत ऊंची उपमा है। आपको मेरे कथन पर विश्वास न हो तो आचार्यश्री से पूछ लीजिए।' श्रावकों को सम्बोध देते हुए आचार्य श्रीलालजी ने कहा-श्रावको! गोठीजी बहुत गहरे व्यक्ति हैं। कुत्तियावण वास्तव में ही अच्छी उपमा है। आप गोठीजी से इसका हार्द तो समझ लें। __ आचार्यश्री का संकेत पाकर गोठीजी बोले- 'कत्तियावण ऐसी दुकान का नाम है, जहां तीन लोक की समग्र वस्तुएं उपलब्ध होती हैं। आचार्यों की ज्ञानधारा भी ऐसी ही होनी चाहिए, जिससे वहां आकर कोई जिज्ञास व्यक्ति निराश न लौटे।' यह बात सुनकर श्रावकों ने गोठीजी के प्रति सदभावना व्यक्त की। आचार्य श्रीलालजी वृद्धिचंदजी के तत्त्वज्ञान से पूरे परिचित थे। उन्होंने एक प्रसंग में कहा- 'एक तरफ हमारे हजार श्रावक और एक तरफ अकेले गोठीजी हों तो भी शास्त्रीय धारणा में इनका कोई मुकाबला नहीं है।' वृद्धिचंदजी अपने जीवन में आचार्यश्री डालगणी, कालूगणी और तुलसीगणी की उपासना में बराबर निरत रहे। वर्षों तक वे तेरापंथी महासभा के अध्यक्ष रहे। जब कभी धर्मशासन की सेवा का प्रसंग उपस्थित हुआ, उन्होंने सदा आगे रहकर काम किया। जीवन के अंतिम समय में उन्होंने अनशनपूर्वक समाधि-मृत्यु प्राप्त की। १४६. बालचंदजी सेठिया सरदारशहर के प्रमुख श्रावकों में से एक थे। साधु-साध्वियों के प्रति वे अत्यंत विनीत थे। गोचरी के समय भावना भाने का उनमें विशेष गुण था। अपने घर के निकट छोटे-बड़े किसी भी साधु-साध्वी को देखते तो जूते खोलकर विधिवत वंदना करते थे। जिन लोगों ने उनको देखा, ३५६ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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