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विशेष कृपापात्र और शासनभक्त व्यक्ति थे। धर्मसंघ को वे अपना जीवन समझते थे। उनके जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए, पर कालूगणी की कृपा में कभी कमी नहीं आई। उनके संबंध में लोगों की प्रतिक्रिया अनुकूल नहीं थी। कभी-कभी कालूगणी की असीम अनुकंपा भी उनकी आलोचना का विषय बन जाती थी। पर उन्होंने इस बात की कभी परवाह नहीं की। कालूगणी जिस व्यक्ति पर दृष्टि टिकाते, वह व्यक्ति स्वयं विमुख न हो तो उनकी दृष्टि में जीवन भर अंतर नहीं आता था। कालूगणी ने बीदासर-प्रवास में अमोलकचंदजी की हवेली में दो चातुर्मास भी किए।
१४४. सरदारशहर-निवासी मोतीलालजी दूगड़ (वाणीदावास) आचार्यश्री कालूगणी के अंतेवासी भक्तों में से थे। वे बड़े चरित्रनिष्ठ, निश्छल और शासनभक्त व्यक्ति थे। कालूगणी के परम विश्वासी थे। यद्यपि अमोलकचंदजी बैंगानी की तरह वे श्रावक समाज में प्रसिद्ध नहीं थे, पर कालूगणी की उन पर भी विशेष कृपा थी। वे प्रतिवर्ष गुरुदेव की सेवा करते थे। आचार्य और धर्मशासन की सेवा में उन्हें आत्मतोष का अनुभव होता था।
१४५. वृद्धिचंदजी गोठी (सरदारशहर) व्यक्तिगत और संघीय दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण जीवन जीते थे। उनकी संकल्पनिष्ठा और शास्त्रीय धारणा विलक्षण थी। उन्होंने खुले मुंह धर्म-चर्चा करने का त्याग कर दिया। इस त्याग के पालन में वे पूरे सतर्क रहे। उन्होंने जयाचार्य-कृत भगवती सूत्र की जोड़ धारने का काम हाथ में लिया। यद्यपि प्राचीन 'धारणा प्रणाली' की विधि से साधुओं के हस्तलिखित ग्रंथों के अधिग्रहण का काम अत्यंत श्रमसाध्य था, किंतु उन्होंने इसको काफी आगे बढ़ा लिया। प्राचीन पद्धति के अनुसार एक व्यक्ति को तीन मकानों (कमरों) के तीन द्वार छोड़कर साधुओं के हस्तलिखित ग्रंथों को लिखना पड़ता था। लेखन में कोई अशुद्धि रह जाती, उसे भी देखकर शुद्ध नहीं किया जा सकता था। गोठीजी इसके लिए पचासों कंकरों का उपयोग करते। वे जहां-जहां अशुद्धि रहती, वहां एक-एक कंकर रख लेते और उन्हें भी तीन द्वार छोड़कर शुद्ध करते।
इस कार्य में उनको इतना श्रम हुआ कि उनके पांव छिल गए, फिर भी वे थके नहीं और पांवों के पट्टे बांधकर लेखन कार्य करते रहे। भगवती सूत्र की जोड़ का परिमाण अधिक होने से वे उसको पूरी नहीं लिख पाए, किंतु उन्होंने जिस परिश्रम और लगन से काम किया, वह किसी दूसरे व्यक्ति से होना बहुत कठिन था।
गोठीजी तेरापंथ दर्शन के अच्छे ज्ञाता और व्याख्याता थे। शास्त्रीय और
परिशिष्ट-१ / ३५५