SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वे उनकी वंदना - विधि को देखकर विस्मित रह गए। परिवार को धार्मिक संस्कार देने में भी वे बहुत कुशल थे । १४७. जयपुर निवासी सुजानमलजी खारड़ और गुलाबचंदजी लूणियां वहां के वरिष्ठ तेरापंथी श्रावक थे । वे तेरापंथ तत्त्वदर्शन के विशेषज्ञ थे । उन दोनों श्रावकों की अच्छी जोड़ी थी । आचार्यश्री की सेवा वे दोनों साथ-साथ करते और साथ-साथ गाते भी थे। पहले गुलाबचंदजी का गला ठीक नहीं था, पर कालूगणी के प्रोत्साहन और खारड़जी के साथ गाते-गाते ठीक हो गया। उन्होंने तेरापंथ साहित्य की भी अच्छी सेवा की। वे स्वयं रचनाकार थे। इसके साथ ही उन्होंने धर्मसंघ के कुछ साहित्यिक ग्रंथों का अनुवाद तथा उनके प्रकाशन की व्यवस्था कर उस साहित्य को सुलभ बना दिया। उन्होंने 'श्रावक आराधना' की भी रचना की थी १४८. जयाचार्य तेरापंथ शासन के वर्चस्वी आचार्य थे । उन्होंने अपने समय में धर्मसंघ को हर प्रकार से सक्षम बनाने का प्रयत्न किया। संघ के पुस्तक भंडार की समृद्धि के लिए उन्होंने एक व्यवस्था दी - प्रत्येक अग्रणी मुनि प्रतिवर्ष नौ हजार गाथा (पद्य) लिखकर लाए। जो मुनि लिखने में असमर्थ होते, उन्हें रुग्ण, स्थविर और तपस्वी साधुओं की सेवा करनी होती । ऐसे साधुओं का नामांकन कर लिया जाता और आचार्य जब आवश्यक समझते, उनसे सेवा कार्य करा लेते। महोत्सव के अवसर पर गाथाओं का लेखा-जोखा होता । असमर्थ मुनि आचार्य को विशेष निवेदन कर छूट लेने की प्रार्थना भी करते । आचार्य औचित्य देखकर किसी को छूट देते और किसी को नहीं भी देते । वि. सं. १६८६ डूंगरगढ़ महोत्सव की घटना है। मुनि बच्छराजजी ने आचार्यश्री कालूगणी से गाथा-लेखन की छूट देने के लिए प्रार्थना की। कालूगणी ने फरमाया-' लिख सकते हो तो लिखो, नहीं तो नावें लिखा दो ।' मुनिश्री ने काफी अनुनय-विनय किया, पर गुरुदेव ने कृपा नहीं कराई। इससे उनके मन में निराशा आ गई और वे बोले - 'गुरुदेव ! संभालो आपकी पुस्तकें, ऐसी अग्रगामिता का निर्वाह मुझसे तो नहीं हो सकेगा ।' कालूगणी ने उनके भावावेश को शांत करने के लिए शांत भाव से कहा- 'अच्छी बात है, पुस्तकें यहां रख दो और जिसके साथ रहना हो, तय करके बता दो ।' मुनि बच्छराजजी वहां से चले और होश आया । उन्होंने अपनी भूल का अनुभव किया और उल्टे पांव लौट आए। उन्हें अपनी साध्वी बहन दाखांजी का कथन - आचार्यों की आश करनी चाहिए, आसंगा नहीं' याद आ गया । कालूगणी के पास अपनी गलती स्वीकार कर कहा - 'गुरुदेव ! आप महान हैं। सबका निर्वाह करने वाले परिशिष्ट-१ / ३५७
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy