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तीन-तीन पुस्तकें प्रतिलेखन के लिए थीं। संत पुस्तकों की कितनी सुरक्षा रखते हैं? यह जांच करने के लिए कालूगणी कभी-कभी अचानक 'पुस्तक भंडार' में पधारते और एक-एक पुस्तक खोलकर देखते। जिन सन्तों की पुस्तकों के पन्ने आगे-पीछे या मुड़े हुए होते, पाटियां बराबर नहीं होतीं, पल्लों में सलवट रहती, उन्हें सजगता की दृष्टि से प्रायश्चित्त मिलता । पुस्तकें बांधने की कला में संतों में मुनि चौथमलजी निष्णात थे । साध्वियों में साध्वीप्रमुखा झमकूजी और साध्वी संतोकांजी (लाडनूं) इस कला में विशेष दक्ष थीं। शेष मुनि कभी अधिक और कभी कम प्रायश्चित्त पाकर उससे प्रेरणा लेते और इस कला में विकास करने का प्रयत्न करते ।
१३८. यति हुलासचंदजी पहले बीदासर रहते थे और बाद में सरदारशहर रहने लगे। आचार्यश्री डालगणी के समय से लेकर अपने जीवन के अंतिम समय तक वे तेरापंथ शासन के अनुकूल रहे। वे एक लेखक, कवि, गायक, लिपिकार और रचनाकार भी थे। उन्होंने 'शासन - प्रभाकर' और 'रूपसेन चरित्र' की रचना की। वे गाते अच्छा थे, अतः अनेक संत उनके पास पुराने गीतों की रागिनियां सीखा करते थे। उनकी लिपि - कला की धर्मसंघ में प्रतिष्ठा थी । हुलासजी के हाथ की लिखी प्रति शुद्ध मानी जाती थी । उसे सब बड़े चाव से अपने पास रखते थे ।
१३८. रामधनजी यति, उनकी पत्नी रूपां और उनका समूचा परिवार बीकानेर के रांगड़ी चौक के पास में रहता था । आचार्यश्री कालूगणी के बीकानेर चातुर्मास में जब सांप्रदायिक संघर्ष की स्थितियों ने उभार लिया तो उन दोनों ने धर्मसंघ की सेवा में काफी योगदान दिया। रूपां बाई का बीकानेर में विशेष प्रभाव था । संघर्ष के समय वह साध्वियों की सेवा में रहती थी । रूपां बाई जब साथ होती तो मजाल है कि कोई साध्वियों की ओर आंख उठाकर भी देख ले । रामधनजी भी निडर और होशियार व्यक्ति थे। उनका पूरा परिवार तेरापंथी है और साधु-साध्वियों का भक्त है । रामधनजी के पुत्र मिश्रीलालजी आदि भी धर्मशासन की सेवा में पूरा रस लेते हैं। 1
१४०. नेमनाथजी सिद्ध (सरदारशहर) पहले संवेगी मुनि थे। अपने मुनिजीवन में वे काफी अध्ययनशील रहे थे । 'परीक्षामुखमण्डन', 'विदग्धमुखमण्डन' जैसे न्याय-ग्रंथों का अध्ययन कर उन्होंने न्यायशास्त्र की सैकड़ों पंक्तियां याद कर रखी थीं। मुनि जीवन को छोड़कर वे पुनः गृहस्थ हो गए। गृहस्थ जीवन में उनकी धार्मिक आस्था का केन्द्र 'तेरापंथ' रहा ।
परिशिष्ट-१ / ३५३