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अनुनय-विनय किया, किन्तु कालूगणी उन्हें मुनि हीरालालजी के साथ रखने के लिए सहमत नहीं हुए। अन्य अग्रगण्य संत भी कालूगणी की दृष्टि के बिना मुनि रावतमलजी को अपने साथ रखने के लिए तैयार नहीं थे। आखिर उन्हें अपने सहदीक्षित मुनि जयचंदलालजी के साथ रहना पड़ा।
इस घटना के बाद मुनि रावतमलजी ने एक मंत्र पकड़ लिया कि गुरु इंगित की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। इस मंत्र को उन्होंने इतनी गहराई से पकड़ा कि जीवन-भर आचार्यों के अनुकूल रहे और धर्मसंघ की प्रभावना करते रहे। आखिर आचार्यश्री तुलसी ने उनको अग्रगण्य बना दिया और उनके स्वर्गारोहण पर उनके संबंध में एक दोहा फरमाया
रावत एरावत जिसो, शासनेन्द्र अनुकूल । गुरु- आज्ञा अनुसरण में, कदे न करतो भूल ।।
१३६. तेरापंथ संघ की तत्कालीन परंपरा के अनुसार प्रत्येक मुनि के लिए यह आवश्यक था कि वह लिखत (मर्यादा - पत्र) पर प्रतिदिन हस्ताक्षर करे । हस्ताक्षर करने के बाद उस लिखत को अपने पास न रखकर समुच्चय के पूठे में रखे । समुच्चय का वह पूठा मुनि शिवराजजी के पास रहता था । यदा-कदा कालूगणी उसे मंगाकर उसका निरीक्षण कर लेते थे ।
जिस दिन कालूगणी निरीक्षण करने के लिए पूठा मंगाते, संतों में हलचल - सी मच जाती। हलचल का कारण होता हस्ताक्षर करने में संतों का प्रमाद। कुछ संत एक मास तक हस्ताक्षर नहीं करते और कुछ एक मास आगे के हस्ताक्षर पहले ही करके रख देते। कुछ मुनि लिखत पत्र अपने व्यक्तिगत पूठे में रखकर भूल जाते तो कुछ संत पूठा लाने का आदेश होने पर उसमें हस्ताक्षर करते ।
आचार्यश्री कालूगणी एक-एक मुनि के कार्य का पूरा पर्यवेक्षण करते और औचित्य के अनुसार प्रायश्चित्त देते । लिखत में जितनी तिथियां आगे की होतीं, जितने दिन कम होते, उतने ही परिष्ठापन दण्ड में प्राप्त होते । व्यक्तिगत पूठे में लिखत रह जाए तो जितने दिन रहे, उतने परिष्ठापन। इस प्रकार प्रत्येक भूल का सूक्ष्मता से अवलोकन कर वे संतों को सजग कर देते। इस क्रम में प्रायः संत दंड के भागीदार बनते। मुनि भीमराजजी मुनि चौथमलजी आदि कुछ संत इस विषय में पूरे जागरूक रहते थे ।
१३७. ‘पुस्तक भंडार' साधुसंघ की संपदा होती है । हस्तलिखित पुस्तकों की सुरक्षा इतिहास और संस्कृति की सुरक्षा है। सुरक्षा की दृष्टि से पुस्तकों के प्रतिलेखन का दायित्व संतों पर था । प्रायः संतों के पास समुच्चय की दो-दो,
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