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'वह विकल्प क्या है?' उनके ऐसा पूछने पर कालूगणी ने फरमाया-'जब तक आपसे काम नहीं होता है, आप गृहस्थों के साथ बात नहीं कर सकेंगे और एक पंक्ति भी लिख नहीं सकेंगे।' एक बार तो उन्होंने विकल्प स्वीकार कर लिया, पर बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई। दिन पूरा बीता ही नहीं कि वे कालूगणी के सामने आकर खड़े हो गए और बोले-'गुरुदेव! मैं काम करूंगा।' कालूगणी ने कहा-'आप वृद्ध हैं, थकान अनुभव करते हैं, फिर काम क्यों करेंगे?' वे बोले-'गुरुदेव! मौन रखना मेरे वश की बात नहीं है।' लिखने की भी उन्हें इतनी हॉबी थी कि वे दिन-रात जब भी अवकाश मिलता, लिखते रहते थे। आखिर कालूगणी ने लिखने और बोलने से प्रतिबंध हटाकर उन्हें कार्य में नियुक्त किया।
कालूगणी के जीवन की यह एक विशेष बात थी कि वे उत्तेजित और अड़ियल प्रकृति वाले साधकों को भी जीवन-भर निभाने का प्रयास करते थे। बात टूटने के कगार तक पहुंच जाती, फिर भी वे उसे जल्दी से तोड़ते नहीं थे। मनोरोगियों को निभाने में उनकी कला विलक्षण थी।
१३५. आचार्य और शिष्य का संबंध विनय और वात्सल्य का संबंध है। शिष्य का विनय आचार्य के वात्सल्य को प्राप्त करके फलता-फूलता है और आचार्य का वात्सल्य विनीत शिष्य को सहज उपलब्ध होता है। शिष्य के संरक्षण की समग्र जिम्मेवारी आचार्य पर होती है, इसी प्रकार आचार्य के इंगित की आराधना करना शिष्य का पुनीत कर्तव्य होता है। कोई भी स्थिति आचार्य को निवेदन करने की हो, उसे निवेदित कर निश्चित हो जाना विनयी शिष्य का काम है। आचार्य की दृष्टि या इंगित की अवहेलना कर व्यक्ति अपना हित नहीं कर सकता।
मुनि रावतमलजी (सुजानगढ़) और मुनि फूलचंदजी, मुनि हीरालालजी के सहयोगी संत थे। मुनि हीरालालजी पहले आचार्यश्री कालूगणी की उदक-परिचर्या में नियुक्त थे। बाद में उन्हें अग्रगण्य बनाकर बहिर्विहार करवा दिया गया। मुनि रावतमलजी ने दोनों संतों की प्रकृति के संबंध में कालूगणी से शिकायत की। कालूगणी ने फरमाया- 'यह स्थिति मेरे ध्यान में है। इसके बाद मुनि रावतमलजी को निश्चित हो जाना चाहिए था, पर वे दूसरी बार, तीसरी बार निवेदन करते रहे।
शिकायत की यह वृत्ति कालूगणी को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने उपालंभ के लहजे में फरमाया- 'जो बात मेरे ध्यान में है, उसे बार-बार दोहराने से क्या लाभ? तुम्हें वहां नहीं रहना हो तो मत रहो। अपने लिए अन्यत्र स्थान खोज लो।' अब मुनि रावतमलजी को अपनी भूल का भान हुआ। उन्होंने बहुत
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