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वे गलती पर करारी चोट किया करते थे। वि. सं. १९८६, लाडनूं चातुर्मास में मुनि सोहनलालजी (चूरू) के जीवन में एक अकल्पित घटना घटी। उससे समाज में एक हलचल-सी मच गई। मुनि सोहनलालजी कुछ दिन अज्ञात रहने के बाद संभलकर लाडनूं पहुंचे। वहां उन्होंने संघ में पुनः प्रवेश के लिए निवेदन किया। उनके निवेदन में विनय था, संघ और संघपति के प्रति गहरी निष्ठा थी और साधुत्व पालने की मनोवृत्ति थी। चतुर्विध संघ को उन्होंने अपने प्रवाह में बहा लिया, पर कालूगणी उनके निवेदन को तत्काल स्वीकृत न करने के निर्णय पर दृढ़ थे। इस निर्णय के पीछे कुछ विशेष कारण थे। अतः चारों ओर से प्रार्थना के बावजूद कालूगणी अपने निर्णय पर दृढ़ रहे। इस बात का समाज पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा।
मुनि सोहनलालजी वहां तखतमलजी फूलफगर के मकान में ठहरे थे। यद्यपि वे धर्मसंघ के अनुकूल थे, किंतु थे संघ से बाहर। संघ से बहिर्भूत या बहिष्कृत व्यक्ति के साथ अति संपर्क संघीय मर्यादाओं से प्रतिकूल है। इस बात को जानते हुए भी प्रमादवश संतों ने वहां जाना शुरू कर दिया। कई संत प्रतिदिन वहां जाते
और घण्टों उनके साथ बातचीत करते। बात भी कोई विशेष नहीं थी, फिर भी एक सिलसिला चल पड़ा। इस घटना में उल्लेखनीय बात यह है कि वहां जाने वाले कालूगणी से निवेदन किए बना ही चले जाते थे।
कालूगणी को स्थिति की अवगति मिली। उन्होंने संतों की एक सभा बुलाई और अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए कहा-'मुझे पता चला है कि तुम लोग वहां बार-बार जाते हो। क्या यह अपने संघ की सामाचारी है? जो व्यक्ति संघ से अलग है, उसके साथ इतना संपर्क कहां तक उचित है? तुम लोग वहां गए भी तो बिना पूछे कैसे गए? मैं मानता हूं कि वह (मुनि सोहनलालजी) ठीक है, अनुकूल है, फिर भी हमारे धर्मसंघ की एक सीमा है। उसका अतिक्रमण किसी भी स्थिति में नहीं होना चाहिए।'
कालूगणी के इस सामयिक प्रशिक्षण ने सब संतों का मार्ग प्रशस्त कर दिया। अपनी भूल की अनुभूति के साथ उन्हें संघीय सामाचारी के संबंध में भी पूरी जानकारी मिल गई।
१३३. मुनि चौथमलजी ने 'भिक्षुशब्दानुशासन' का निर्माण कार्य संपन्न होने के बाद उसकी नई ‘प्रति' लिखनी शुरू की। ग्रंथ विशाल था। प्राचीन लेखन सामग्री से लिखने में अधिक समय लगता था। लेखन में उनकी गति भी मंद थी। लेखन-कार्य शुरू करने के बाद कालूगणी उनसे कई बार पूछते-'कितना लिखा
परिशिष्ट-१ / ३४६