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१३१. सं. १६८८ में कालूगणी का चातुर्मास बीदासर था। वहां कुछ संतों में मानसिक तनाव हो गया । तनाव इतना बढ़ा कि परस्पर बोलचाल भी बंद हो गयी । रत्नाधिक साधुओं को वंदना और पक्खी के दिन 'खमतखामणा' का क्रम भी मात्र औपचारिक रह गया। जहां अपना-अपना आग्रह हो जाता है, वहां व्यक्ति सही चिंतन नहीं कर सकता । तनाव का यह वातावरण भी साधारण साधुओं में नहीं, कुछ दीखते संतों में बना। उसके प्रमुख पात्र थे मुनि सगतमलजी, मुनि कानमलजी, मुनि सोहनलालजी, मुनि सुखलालजी, मुनि चंपालालजी आदि ।
बीदासर-निवासी अमोलकचंदजी बैंगाणी ने कालूगनी से निवेदन किया- 'गुरुदेव ! यह दीये तले अंधेरा कैसे ?' कालूगणी को तब तक इस संबंध में कोई जानकारी नहीं थी । जानकारी मिलते ही उन्होंने संबंधित संतों को याद किया। आकस्मिक सूचना ने संतों के मन में हलचल उत्पन्न कर दी, फिर भी उन्हें उपस्थित तो होना ही था । संत आकर वंदन की मुद्रा में बैठ गए। कालूगणी ने उनको लक्ष्य
कर कहा
'तुम लोग गुरुकुलवास में रहते हो और ऐसी हरकत करते हो। क्या तुम्हें. इसका ख्याल नहीं है? मैं तुमसे संघ का छोटा-बड़ा हर काम करा लेता हूं और तुम परस्पर अनबोल रहते हो । क्या यह मेरी दृष्टि और आज्ञा की आराधना है ? मेरी समझ में ऐसा करने वाले मेरी आज्ञा का लोप करते हैं । तुम सब साधु हो, उपदेशक हो। तुम्हारे उपदेश का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? तुम स्वयं राग-द्वेष
झे हुए हो तब श्रद्धालु लोगों का राग-द्वेष कैसे कम कर पाओगे ? तुम समझते नहीं, तुम्हारे इस व्यवहार से लोगों के मन में मेरे बारे में क्या प्रतिक्रिया होगी ? मैं जानता हूं कि तुम सब छद्मस्थ हो, परस्पर कोई बात भी हो सकती है, पर इसका सीधा उपचार है तत्काल क्षमायाचना कर सौहार्द की स्थापना । ऐसी वृत्तियों से तुम अपनी मंजिल तक कैसे पहुंचोगे ?”
कालूगणी की इस प्रेरक शिक्षा ने जादू का-सा काम किया। लंबे समय से चली आ रही अनबोल कुछ ही क्षणों में समाप्त हो गई। सब संतों ने अपनी-अपनी भूल बताकर एक-दूसरे को गले लगाया। समूचा वातावरण स्नेह और सौहार्द से आप्लावित हो गया ।
तेरापंथ धर्मसंघ में आचार्यों का प्रभाव और उचित समय पर किया जाने वाला अनुशासन बड़ी से बड़ी उलझन को सहज भाव से सुलझा देता है ।
१३२. गलती चाहे व्यक्ति की हो या समूह की, उसे नजरंदाज नहीं करना चाहिए, यह आचार्यश्री कालूगणी की स्पष्ट नीति थी । अपना दायित्व समझकर
३४८ / कालूयशोविलास-२