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राणाजी छह बजे से सूर्यास्त होने तक लगभग आधा घंटा पूज्य कालूगणी की सन्निधि में रहे। कालूगणी ने पहले मनुष्य जीवन की दुर्लभता एवं उसे सार्थक बनाने की दृष्टि से उपदेश सुनाया। तेरापंथ धर्मसंघ का इतिहास एवं रीति-नीति बताई। प्रसंगवश सूक्ष्म अक्षरों में लिखित कलात्मक पत्र दिखाया। अन्त में राजा के कर्तव्य के बारे में प्रतिबोध दिया। राणाजी ने प्रसन्नता से सारी बातें सुनी, आभार ज्ञापित किया और वहां से विदा हो गए।
चौदहवें गीत का प्रारंभ राणाजी के प्रसंग से ही हुआ है। वे उठकर बाहर आए और कालूगणी मकान के भीतर पधारे, उसी समय तेज वर्षा शुरू हो गई। कवि ने कल्पना की है कि मेघ ने कालूगणी का उपदेश सुनकर गर्जन के मिष प्रसन्नता प्रकट की और पानी बरसाकर अपनी कालिमा दूर कर दी। .
राणाजी स्वयं कालूगणी के विशिष्ट व्यक्तित्व से प्रभावित होकर बोले-तेरापंथ के आचार्य महाराज का उपदेश इतना निस्पृहतापूर्ण है कि उसे सुनने से मन का संशय और संक्लेश एक साथ दूर हो जाता है। उनके दर्शन का फिर कभी मौका मिले तो सूचित करना। उससे मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।
राणाजी की विशेष श्रद्धा-भक्ति के कारण उदयपुर शहर में जन-जन के मुंह पर एक ही चर्चा थी कि महाराणा भोपालसिंहजी कालूगणी के दर्शनार्थ गए और एक श्रावक की तरह बद्धाञ्जलि हो आधा घंटा तक उपदेश सुनते रहे। ___ एक व्यक्ति बोला-'इसमें आश्चर्य की क्या बात है? वि. सं. १६४३ में तेरापंथ के पांचवे आचार्य मघवागणी उदयपुर आए थे। उस समय महाराणा फतेहसिंहजी कविराज की बाड़ी में दर्शन करने गए थे। वे उपदेश सुन रहे थे, पर प्रतिक्रमण का समय हो जाने से आचार्यजी बीच में ही उठ गए। इस प्रसंग में राणाजी कितने प्रभावित हुए थे।'
दूसरा व्यक्ति बोला-'अरे भाई! यह तो अभी की बात है। इससे पहले आचार्य भारीमालजी के समय महाराणा भीमसिंहजी ने उनकी जो भक्ति की थी, उसे कैसे भुल गए ?'
तीसरा व्यक्ति बोला-'महाराणा भीमसिंहजी से पहले महाराजा सज्जनसिंहजी की भावना भी बहुत ऊँची थी। पर आयुष्य कम होने के कारण उन्हें ऐसा मौका नहीं मिला।
__चौथा व्यक्ति बोला-'अरे भाई ! कालूगणी की शक्ति का कोई माप नहीं है। आप लोगों ने देखा होगा कि जब तक उन्होंने राणाजी को उपदेश दिया, एक भी बूंद नहीं गिरी। इधर राणाजी उठे, उधर मुसलाधार पानी बरसने लगा।'
इस प्रकार प्रमोद भावना से भावित उदयपुर शहर में चातुर्मासिक प्रवास
.. कालूयशोविलास-२ / ३३