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________________ गृहस्थ को कुछ भी न बताया जाए। धर्मसंघ के सौभाग्य और पूज्य गुरुदेव कालूगणी की उत्कृष्ट अहिंसा वृत्ति के प्रभाव से एक षड्यंत्र विफल हो गया । मदारी खां सदा के लिए गुरुदेव का भक्त हो गया। धर्म के इतिहास में एक काला पृष्ठ जुड़ता जुड़ता कट गया। १२७. वि. सं. १६८१, चूरू चातुर्मास में आचार्यश्री कालूगणी रायचंदजी सुराणा के कमरे में विराजते थे । रायचंदजी के यहां एक सरदार नाहरसिंह रहता था। उन्होंने नाहरसिंह को संतों की सेवा में नियुक्त कर दिया। संतों की सन्निधि पाकर वह भी प्रसन्न था । नाहरसिंह अपने कर्तव्य के प्रति पूरा जागरूक था । कभी-कभी वह रात को प्रहरी का काम भी करता था । कालूगणी जिस कमरे में प्रवास करते थे, उसके पीछे सार्वजनिक मार्ग था। एक रात मुसलमानों के ताजिए ढोल-ढमक्कों के साथ उसी रास्ते से आ रहे थे। उस समय तक कालूगणी सो गए थे। नाहरसिंह मकान के नुक्कड़ पर जाकर खड़ा हो गया और बोला- 'मेरे मालिक सो रहे हैं। ढोल-ढमक्कों से उनकी नींद में व्यवधान होगा, इसलिए मैं इधर से ताजिए नहीं जाने दूंगा।' सिक्ख होने के कारण उसके पास कृपाण थी। कृपाण हाथ में लेकर वह मुकाबले के लिए तैयार हो गया। ताजिए निकालनेवालों का रास्ता वही था और नाहरसिंह अपने मोर्चे पर डटकर खड़ा था । कालूगणी की नींद टूटी। उन्हें जब स्थिति का पता लगा तो उन्होंने तत्काल रायचंदजी को याद कर नाहरसिंह को समझाने के लिए संकेत दिया। रायचन्दजी ने नाहरसिंह से कहा - 'हमें किसी प्रकार का झमेला खड़ा नहीं करना है। गुरुदेव अभी जाग रहे हैं। तुम रास्ता छोड़ दो।' उस समय कालूगणी शांत रहने का संकेत नहीं देते तो स्थिति में कोई अवांछनीय मोड़ आ सकता था । चूरू चातुर्मास के बाद नाहरसिंह प्रायः कालूगणी की सेवा में रहने लगा । वह खरा और स्यामखोर व्यक्ति था। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित था तथा पूरा स्वाभिमानी था। वह तीन दिन भूखा रहने के लिए तैयार था, पर किसी के आगे हाथ नहीं पसारता था। मांगने को वह पाप समझता था। उसके जीवन की एक विचित्र बात यह थी कि वह जब कभी घर जाता, बीमार हो जाता। गुरुदेव की सेवा में पहुंचते ही पुनः स्वस्थ हो जाता । नाहरसिंह के संबंध में उल्लेखनीय बात यह है कि उसमें संग्रह की वृत्ति नहीं थी। एक बार कालूगणी ने उसको इस विषय में शिक्षा फरमाते हुए कहा था - ' - नाहरसिंह ! साधुओं की सेवा में रहते हो तो पैसों का संग्रह करने की वृत्ति परिशिष्ट-१ / ३४५
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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