SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घटना मुनि तुलसी के दीक्षित होते ही आठ-दस दिनों के बीच की है। १२३. वि. सं. १६६२ में कालूगणी का चातुर्मास उदयपुर था। वहां दशहरे के दिन राणाजी की सवारी बड़ी धूमधाम से निकलती थी। कई साधु सवारी देखने के लिए उत्सुक थे । अपराह्न में जब वे पंचमी समिति गए तो सवारी देखने के लिए वहीं रुक गए। मुनि तुलसी भी उनके साथ थे। सवारी की झांकियों की शृंखला इतनी लंबी थी कि उन्हें देखते-देखते सूर्यास्त हो गया। सवारी देखकर आनेवाले साधु जब तक अपने स्थान पर पहुंचे, वंदना हो चुकी थी । कालूगणी उस समय प्रतिक्रमण में संलग्न थे । प्रतिक्रमण पूरा होने के बाद साधु गुरुदेव को वंदन करने गए । बिना पूछे सवारी देखने जाना और विलंब से पहुंचना, इसके लिए कालूगणी ने उपालंभ के साथ तेरह कल्याणक का दण्ड भी दिया। संतों को अपने प्रमाद का बोध हुआ और भविष्य में सजग रहने की प्रेरणा मिली । मुनि तुलसी जब कालूगणी के पास अकेले रह गए, तब उन्होंने विशेष रूप से फरमाया-' इन सन्तों के साथ तुम क्यों रहे? तुमने यह असावधानी क्यों की?' यह ममता भरा उपालंभ मुनि तुलसी के लिए प्रकाश स्तंभ बन गया। १२४. आचार्यश्री कालूगणी श्रीडूंगरगढ़ प्रवास कर रहे थे। रात्रि के समय मंत्री मुनि श्री मगनलालजी, मुनि धनराजजी मुनि चंदनमलजी, मुनि तुलसी आदि कुछ संत कालूगणी के पास बैठे थे। रात्रि के अंधकार में वहां थोड़ी दूरी पर प्रकाश दिखाई दे रहा था । समीपस्थ मुनि उस प्रकाश के संबंध में बात करने लगे। कोई उसे बिजली का प्रकाश बता रहे थे, कोई लालटेन का और कोई और कुछ । कालूगणी ने फरमाया-'यह प्रकाश बिजली का नहीं, गली के नुक्कड़ पर लगी लालटेन का है।' यह बात सुन संतों ने एक बार 'तहत' कह दिया, किंतु समर्थन बिजली का करते रहे। मंत्री मुनि भी इस समर्थन में साथ थे । कालूगणी ने फिर फरमाया-' यह प्रकाश लालटेन का ही है ।' मुनि मगनलालजी 'तहत' कहकर मौन हो गए। पर विद्यार्थी साधुओं में से एक मुनि बाहर बरामदे में गया और प्रकाश के संबंध में पूरी जानकारी करके लौटा। उनके आते ही सब पूछने लगे - 'वह प्रकाश किसका है?' मुनि ने लालटेन का प्रकाश बताकर उनकी उत्सुकता को समाहित किया । कालूगणी ने संतों की इस वृत्ति पर टिप्पणी करते हुए कहा- 'मैंने दो बार कह दिया कि यह प्रकाश लालटेन का ही है, फिर भी तुम्हारा आग्रह नहीं टूटा । आखिर वहां जाकर देखने से ही तुम्हें संतोष हुआ।' मंत्री मुनि की ओर संकेत ३४२ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy