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पूठे से 'सिन्दूरप्रकर' की एक शुद्ध और सुंदर प्रति मुनि तुलसी के हाथों में थमा दी । गुरुदेव की इस निष्कारण करुणा ने मुनि तुलसी को अभिभूत कर दिया ।
१२१. आचार्यश्री कालूगणी ने मुनि तुलसी को दीक्षित कर निश्चितता का अनुभव किया। वे अपने और अपने भावी उत्तराधिकारी के बीच इतना तादात्म्य स्थापित कर चुके थे कि कहीं अलगाव की अनुभूति होती ही नहीं थी । अनेक घटनाएं इस तथ्य को पुष्ट करने वाली हैं। यहां केवल एक घटना का उल्लेख किया जा रहा है
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मुनि तुलसी को अध्ययन की दृष्टि से कोई प्रति लिखने की अपेक्षा होती तब वे आचार्यश्री कालूगणी से निवेदन करते - 'मैं अमुक ग्रंथ की प्रतिलिपि करना चाहता हूं।' कालूगणी फरमाते - तुलसी ! तू नई प्रति लिखकर क्या करेगा? यह तो अपने पूठे में है ।
अपनत्व और एकत्व की इस अभिव्यक्ति से मुनि तुलसी अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति में खो जाते ।
१२२. आचार्यश्री कालूगणी सफल सृजनशील कलाकार थे । व्यक्ति-निर्माण की अनुपम कला उन्हें सहज प्राप्त थी। उनकी सृजन क्षमता के सबल साक्ष्य बने मुनि तुलसी । उनको दीक्षित करने से पूर्व ही कालूगणी की दूरगामी दृष्टि उन पर टिक गई। दीक्षित करने के बाद उनकी छोटी-बड़ी हर प्रवृत्ति के प्रति कालूगणी पूरा ध्यान रखते थे ।
सुजानगढ़ में मुनि तुलसी कालूगणी के साथ पंचमी- समिति गए। उस समय वहां बालू रेत के टीले बहुत थे। बचपन में टीलों पर चढ़ने-उतरने की रुचि स्वाभाविक होती है। मुनि तुलसी एक ऊंचे टीले से सीधे नीचे उतरे। टीले के नीचे हरियाली थी । गति के वेग से रेत हरियाली पर जाकर गिरी । कालूगणी ने फरमाया-‘कैसे उतर रहे हो ? नीचे हरियाली है ।' मुनि तुलसी ने अपने आसपास देखा और कहा - 'यहां हरियाली नहीं है ।'
टीलों के बीच में बने रास्ते से लौटते समय कालूगणी उस टीले के नीचे पहुंचे और वहां प्ररोहित हरियाली की ओर संकेत कर मुनि तुलसी से बोले - 'तू कह रहा था कि हरियाली नहीं है । देख तुम्हारे पांवों से कुचली हुई धूल कहां गिरी ?' मुनि तुलसी की आंखें झुक गईं। कालूगणी ने मुनि तुलसी को पांच कल्याणक का दण्ड दिया। स्थान पर पहुंचकर मुनि तुलसी ने विनयपूर्वक अपनी भूल स्वीकार की और भविष्य में सजग रहने की भावना व्यक्त की । कालूगणी ने कृपा कर दंड माफ कर दिया। योगक्षेम का यह दायित्व आचार्य ही निभा पाते हैं । यह
परिशिष्ट-१ / ३४१