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होत चीकने पात'-इस जनश्रुति को मुनि तुलसी ने चरितार्थ कर दिया।
११६. घटना वि. सं. १६६० की है। उन दिनों आचार्यश्री कालूगणी जोधपुर यात्रा से पूर्व लाडनूं प्रवास कर रहे थे। वहां सरदारशहर-निवासी वृद्धिचंदजी गधैया गुरुदेव की उपासना में आए हुए थे। उन्होंने व्यक्तिगत उपासना के लिए समय लिया और निवेदन किया-'गुरुदेव! मुझे अपने दिवंगत पिताश्री श्रीचंदजी का दरसाव हुआ। मैंने उनसे कई बातें पूछीं। उन्होंने मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया और कुछ बातें अपनी ओर से भी कहीं। मैं कुछ तथ्यों से गुरुदेव को अवगत करना चाहता हूं। गधैयाजी द्वारा निवेदित तीन बातें
• सबसे पहली बात उन्होंने कही-उनके पीछे हमने जो उछाल की, वह ठीक नहीं हुआ। ऐसा नहीं होना चाहिए था।
• मेरे एक व्यक्तिगत प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा-ब्रह्मचर्य की साधना कठिन अवश्य है, पर तू इसे अच्छी तरह निभा सकेगा।
• शासन-संबंधी मेरी एक जिज्ञासा के समाधान में उन्होंने कहा-अभी कालूगणी कुछ समय तक धर्मसंघ की सार-संभाल करेंगे, फिर इनके बाद मुनि तुलसीरामजी आचार्य बनेंगे।
कालूगणी ने इन सब बातों को ध्यान से सुन लिया, कहा कुछ नहीं। एक मुनि को किसी प्रकार यह जानकारी मिल गई। वे सीधे मुनि तुलसी के पास गए
और बोले-'तुम्हें पता है क्या? आज वृद्धिचंदजी ने तुम्हारे संबंध में यह बात निवेदन की है।' मुनि तुलसी ने अन्यमनस्क भाव से कहा- 'मैं इन सब बातों को अधिक महत्त्व नहीं देता। आपको भी नहीं देना चाहिए। अपने को इस संबंध में जानने-समझने का प्रयोजन ही क्या है?'
जिस स्थिति की जानकारी पाकर सामान्य व्यक्ति बहुत बड़ा दर्प कर सकता है, उस स्थिति में मुनि तुलसी अहम् और उत्कर्ष भाव से सर्वथा मुक्त सामान्य मनःस्थिति में रहे, यह उनके व्यक्तित्व की गंभीरता के अनुरूप ही था।
१२०. मुनि जीवन का प्रथम वर्ष, अध्ययन-अध्यापन की सहज अभिरुचि और कालूगणी का वात्सल्य तथा प्रोत्साहन। मुनि तुलसी चारित्र की आराधना के साथ ज्ञान की दिशा में भी आगे बढ़ रहे थे। कालूगणी ने बाल मुनियों को निर्देश दिया-'सिन्दूरप्रकर' याद करना है। बालमुनियों ने रत्नाधिक संतों से 'सिन्दूरप्रकर' की हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त कर लीं।
मध्याह्न के समय बाल मुनि आचार्यश्री के उपपात में उपस्थित हुए । प्रायः सब संतों के पास प्रतियां थीं, पर मुनि तुलसी खाली हाथ थे। कालूगणी ने अपने
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