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पैंदे से फूटे हुए घड़े की तुलना में आते हैं। पैंदे से फूटा हुआ घड़ा घी को धारण नहीं कर सकता, इसी प्रकार दुराचारी व्यक्ति वीर्य धारण की क्षमता खो देते हैं । वे शरीर और मन दोनों ओर से अक्षम होकर सत्त्वहीन जीवन जीते हैं ।
इस उदाहरण के माध्यम से कालूगणी अपने साधु-समाज और श्रावक-समाज को ब्रह्मचर्य - साधना के लिए सजग करते रहते थे ।
११५. मनुष्य का मन चंचल होता है । जब तक साधना के द्वारा इस पर काबू नहीं कर लिया जाता है, यह भटकता रहता है। भटकन के क्षणों में मानसिक विकृति का उद्भव स्वाभाविक है । मानसिक विकार के समय व्यक्ति को अच्छा संपर्क मिल जाए तो वह पुनः संभल जाता है और गलत संपर्क से पतन की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं । सत्संग से टूटा हुआ मनोबल संध जाता है और मानसिक विकृति का भी निरसन हो जाता है । इस सन्दर्भ में आचार्यश्री कालूगणी एक कहानी सुनाते थे
एक सेठ को व्यवसाय की दृष्टि से सुदूर प्रदेश जाना था। उस समय यातायात के शीघ्रगामी साधन उपलब्ध नहीं थे, इसलिए यात्रा में काफी समय लग जाता था । सेठानी सेठ के जाने का निर्णय सुन उदास हो गई। सेठ ने उसको जल्दी आने का आश्वासन देकर उससे स्वीकृति ले ली। सेठानी अकेली रहना नहीं चाहती थी, पर विवश थी । आखिर उसने अपने पति को विदा दी । विदा के समय सेठ ने अपनी पत्नी को शिक्षा देते हुए कहा- 'मैं वहां का काम निपटाकर जल्दी आने का प्रयास करूंगा। फिर भी कुछ समय लग सकता है। तुम अपने कुलाचार का ध्यान रखना । किसी भी स्थिति में कुल-मर्यादा का अतिक्रमण मत करना । कदाचित तुम्हारा मन अस्थिर हो जाए तो किसी व्यक्ति को याद कर लेना । पर ध्यान रखना वह व्यक्ति ऐसा हो, जो शौच के लिए सबसे दूर जाता हो ।'
सेठानी को सेठ का यह कथन अप्रिय लगा। वह बोली- 'आप मेरा अविश्वास क्यों करते हैं ? मेरा मन स्थिर है । मैं अपने जीवन में कभी ऐसा प्रसंग आने ही नहीं दूंगी।'
सेठ बोला- 'मेरे मन में तुम्हारे प्रति किंचित भी अविश्वास नहीं है। पर पता नहीं कब क्या घटित हो जाए? इसलिए थोड़ा-सा संकेत मात्र किया है । और तो तुम स्वयं समझदार हो ।'
सेठ अपने व्यावसायिक प्रदेश में पहुंचा और लंबे समय तक नहीं लौट सका । सेठानी सेठ की प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठी थी, पर सेठ के आगमन की कोई सूचना नहीं मिली। आखिर एक समय आया, जब सेठानी का मन विचलित हो
परिशिष्ट-१ / ३३७