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________________ गया। उस समय उसे अपने पति की शिक्षा याद आई। अब वह अपने मकान की छत पर चढ़कर शौच जाने वाले व्यक्तियों का निरीक्षण करने लगी। उसने देखा-एक व्यक्ति दूर, बहुत दूर जा रहा है। दो-चार दिन उसके बारे में पक्की जानकारी कर सेठानी ने उसे आमंत्रित करने का निर्णय ले लिया। वह व्यक्ति सेठानी के मकान के आगे से ही गुजरता था। एक दिन उसने अपने कर्मकर के साथ उसे ऊपर बुलाया। उस व्यक्ति ने सोचा-कोई काम होगा। वह सेठानी के कमरे में पहुंचा। उसके पहुंचते ही प्रारंभिक शिष्टाचार की बातों के बाद सेठानी ने अपनी मनःस्थिति के अनुरूप व्यवहार का प्रदर्शन किया। आगन्तुक एक बार चौंका और फिर कांप उठा। वह सेठानी के हाव-भाव को समझ गया था। अपने बचाव के लिए उसने एक उपाय सोचा। उस उपाय की क्रियान्विति के लिए उसने अपने हाथ में थामे हुए उस मिट्टी के बर्तन (करवा) को गिरा दिया, जिसे वह जंगल जाते समय पानी से भर कर ले जाता था। मिट्टी का बर्तन गिरा और चूर-चूर हो गया। आगन्तुक उसे देख सिसकियां भरकर रोने लगा। सेठानी आश्चर्य में खो गई। मिट्टी का बर्तन टूटने पर इतना दुःख! उसने दुःख का कारण पूछा। आगंतुक आंसू पोंछते हुए बोला-'हे प्रभो! अब क्या होगा? मेरे जीवन भर की अर्जित इज्जत समाप्त हो जाएगी। सेठानी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। वह बोली-'आप चिंता क्यों करते हैं? जैसा चाहो वैसा ‘करवा' अपने यहां से ले लीजिए। आप यह तो बताएं कि आपके मन में दुःख क्या है?' ___ आगंतुक सकुचाता और सहमता हुआ बोला-'यह करवा मेरे जीवन का साथी है। मैंने आज तक अपनी पत्नी और इस करवे के अतिरिक्त किसी के सामने अपनी काछ को अनावृत नहीं किया। अब मुझे दूसरा मिट्टी का बर्तन लेना पड़ेगा। बस यही सोचकर मैं व्यथित हो रहा हूं।' सेठानी ने आगंतुक की यह बात सुन अपने आपको संभाल लिया। वह सोचने लगी-कहां यह सदाचारी व्यक्ति और कहां कुल-परंपरा को तोड़ने के लिए उद्यत मेरा मन? मैंने अपने कुत्सित विचारों से अपने जीवन में धब्बा लगा लिया। खैर, अब भी संभल जाऊं तो अच्छा है। सेठानी का मन बदला और उसने आगंतुक को पिता-तुल्य सम्मान देकर विदा किया। कुलीन व्यक्ति के संपर्क से असंतुलित मन भी संतुलित हो जाता है इसलिए ऐर-गैर व्यक्ति के संसर्ग से बचाव करना चाहिए। ११६. मंत्री मुनि कहा करते थे कि आचार्यश्री कालूगणी ने मुनि तुलसी ३३८ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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