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हणूतमलजी आदि भी सुजानगढ़ पहुंच गए और इस झूठे दावे से अपने बचाव की पैरवी करने लगे । सही और स्पष्ट स्थिति सामने आने पर गणेशजी को छह माह की सजा हुई। चार मास सजा भोगने के बाद उन्हें दो महीने की सजा माफ हुई। इस प्रकार के और भी अनेक प्रसंग हैं, जिनमें छोटूजी और शिवजी अनेक झंझटों में पड़ते-पड़ते बच गए।
एक बार बाजार में धर्म को लेकर झंझट खड़ा हो गया। छोटूजी उस समय कालूगणी की सेवा में सामायिक कर रहे थे । उन्हें जब घटनाचक्र की जानकारी मिली तो वे आपा खोकर बाहर जाने ही वाले थे कि कालूगणी ने संकेत दिया- 'छोटूजी ! सामायिक है ।' फिर वे वहीं बैठ गए, पर उनके मन का आक्रोश कम नहीं हुआ। वे अपने साथी शिवजीरामजी को संबोधित कर बोले- 'अरे सोजीड़ा ! मेरे सामायिक है तो क्या हुआ ? तेरे तो सामायिक नहीं है और मेरी इस लाठी के भी सामायिक नहीं है। बैठे-बैठे क्या देखते हो?'
इन घटनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि धर्मशासन के कट्टर भक्त होने पर भी वे लोग अत्यन्त उग्रवादी थे। समय-समय पर आचार्यों के मार्गदर्शन और प्रेरणा से वे अपनी उग्रता पर काबू पाते रहे, अन्यथा पता नहीं वे किस प्रवाह में बह जाते ।
१०६. वि. सं. १६८८ में कालूगणी का चातुर्मास बीदासर था । उस समय कालूगणी के साथ पचीस संत थे। संतों ने पचरंगी तपस्या का निर्णय लिया । इस तपस्या में पचीस संतों को उपवास से पंचोले तक की तपस्या करनी थी, अतः सभी संतों को इसमें सम्मिलित होना आवश्यक था। मुनि सुखलालजी ने मुनि कुंदनमलजी से कहा - ' आपको एक तेला करना होगा।' मुनि कुंदनमलजी बोले - 'कालूगणी उपवास कराएंगे तो मैं भी करूंगा, अन्यथा तेला तो दूर मैं तो उपवास भी नहीं करूंगा।'
मुनि सुखलालजी ने विनयपूर्वक कहा - 'मुनिश्री ! आप साथ नहीं देंगे तो हमारी पचरंगी टूट जाएगी।' मुनि कुंदनमलजी ने दो टूक जवाब दिया- 'कल टूटती आज ही टूटे, मुझसे तो कुछ नहीं होगा ।'
मुनि सुखलालजी ने कालूगणी के पास पहुंचकर अपनी समस्या रखी । कालूगणी ने मुनि कुंदनमलजी को बुलाकर पूछा तो उन्होंने कहा - 'गुरुदेव ! तेला करने की इच्छा नहीं है।' कालूगणी ने फरमाया- 'क्या इच्छा नहीं है। थोड़ा उत्साह रखो ।' कालूगणी का इंगित मिलते ही उनका मन बदल गया और बोले - 'गुरुदेव ! तेला पचखा दीजिए।'
तीन दिन पूरे हुए। तपस्या का पारणा करने का प्रसंग आया तो मुनि
३३२ / कालूयशोविलास-२
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