SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रजोहरण-साध्वी केसरजी (श्रीडूंगरगढ़), साध्वी केसरजी (रतनगढ़), साध्वी सुन्दरजी (लाडनूं। सिलाई-साध्वी संतोकांजी (लाड), साध्वी भत्तूजी (सरदारशहर)। रंगाई-साध्वी हीरांजी (नोहर), साध्वी सोनांजी (सरदारशहर)। चित्रकला-साध्वी केसरजी (रीणी), साध्वी चिमनांजी (राजलदेसर)। लिपिकला-साध्वी ज्ञानांजी (पीतास), साध्वी सोहनांजी (उदयपुर), साध्वी ___ भीखांजी (बीदासर), साध्वी सुंदरजी (लाडनूं)। साध्वीप्रमुखाश्री कानकुमारीजी ने आचार्यश्री कालूगणी के आचार्य पदारोहण के बाद प्रथम बार दर्शन किए, उस समय एक साथ तेरह रजोहरण भेंट किए थे। साध्वीप्रमुखाश्री झमकूजी कला का जीता-जागता उदाहरण थीं। उनकी कुछ कलाएं तो आज दुर्लभ होती जा रही हैं। १००. आचार्यश्री कालूगणी ने अपने समय में कुछ ऐसे साहसिक कदम उठाए, जो इतिहास के महत्त्वपूर्ण पृष्ठ बन गए। उनमें एक कदम है-आर्य-अनार्य क्षेत्रों के संबंध में नई स्थापना। वि. सं. १६८४-८५ साल की बात है। कालूगणी उन दिनों बीदासर विराज रहे थे। शीतकाल का समय था। मुर्शिदाबाद-निवासी मानसिंहजी (शहरवाली) आदि कई व्यक्ति गुरुदेव के दर्शन करने आए। मानसिंहजी ने एक प्रश्न उपस्थित करते हुए पूछा-गुरुदेव! यह आर्य-अनार्य क्षेत्र की परिभाषा कैसी है? जिन क्षेत्रों को शास्त्रों में अनार्य माना गया है, वे उपयुक्त प्रतीत होते हैं। इस स्थिति में हम आर्य और अनार्य का वर्गीकरण किस आधार पर करते हैं?' कालूगणी ने इस परंपरा के आधारभूत ग्रंथ 'बृहत्कल्प' सूत्र का निरीक्षण किया। उसमें लिखा है-साधु-साध्वियों के लिए पूर्व में अंग-मगध तक, दक्षिण में कौशांबी तक, पश्चिम में थूणानगर तक और उत्तर में कुणाला देश तक जाने का कल्प (विधि) है। यह इतना ही कल्प है और इतना ही आर्यक्षेत्र है। इससे आगे जाना विहित नहीं है। इससे आगे जाने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र क्षीण हो जाते हैं। इस आगम पाठ का अंतिम हिस्सा है-"तेण परं जत्थ नाणदंसण १. बृहत्कल्प सूत्र ३.१ कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेण जाव अंगमगहाओ एत्तए, पच्चत्थिमेण जाव थूणाविसयाओ एत्तए, दक्खिणेण जाव कोसम्बीओ एत्तए, उत्तरेण जाव कुणालाविसयाओ एत्तए, एयावयाव कप्पइ, एयावयाव आरिए खेत्ते, नो से कप्पइ एत्तो बाहिं, तेण परं जत्थ नाणदंसणचरित्ताई उस्सप्पंति। परिशिष्ट-१ / ३२७
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy