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चरित्ताइं उस्सप्पंति” । बृहत्कल्प के टब्बे में उस्सप्पति का अर्थ है - विनाश होना । कालूगणी ने मुनिश्री हेमराजजी आदि संतों से कहा- 'उस्सप्पंति के सही अर्थ की खोज करो।' मुनि हेमराजजी आदि मुनियों ने परिश्रमपूर्वक अनेक ग्रंथों और शब्दकोशों का अवलोकन किया। उन्हें उस्सप्पति का एक अर्थ मिला - ' वृद्धिं प्राप्नुवन्ति' । इस अर्थ के उपलब्ध होते ही कालूगणी ने फरमाया-' इस संदर्भ में यह अर्थ बिलकुल ठीक बैठता है ।' अर्थ की संगति बैठने पर भी वह अब तक की परंपरा से नया निर्णय होता । उससे ऊहापोह होना सम्भव था; फिर भी कालूगणी का मन निष्कंप था। उन्होंने एक बार टब्बे का अर्थ कटवा दिया, किंतु तत्काल फरमाया- हम अब इसी अर्थ को मानकर अपनी नीति का निर्धारण करेंगे, फिर भी किसी के द्वारा कृत अर्थ को उस पुस्तक से हमें नहीं काटना चाहिए।' इसके बाद टब्बे का मूल अर्थ पुनः ठीक करवाकर कालूगणी ने अपनी नई नीति की घोषणा कर दी।
इसके बाद साधु-साध्वियों के लिए विहार के नए क्षेत्र खुल गए । कालूगणी. के इस साहसिक और दूरदर्शितापूर्ण निर्णय के संबंध में जिसने भी सुना, वह उनके प्रति विनत हो गया।
१०१. वि. सं. १६८५ में आचार्यश्री कालूगणी का चातुर्मास छापर था। भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा को उनके पट्टारोहण समारोह का आयोजन था। आयोजन में कवि और गीतकार मुनि अपनी-अपनी भावांजलि के साथ उपस्थित हुए। मुनि चांदमलजी अपने समय के अच्छे कवि थे। उनकी कविताएं अच्छी होती थीं, पर वे बोलने की कला नहीं जानते थे । उस दिन अनेक साधुओं को समय मिला, किंतु मुनि चांदमलजी को नहीं मिल सका। इस बात का उनके मन पर प्रतिकूल असर हुआ । उन्होंने कालूगणी की स्तुति में जो पद्य लिखे, वे पन्ने फाड़ डाले। एक बार अवसर न मिलने से ऐसी निराशा नहीं होनी चाहिए थी, पर उन्होंने आवेश में आकर वह अनुचित काम कर लिया ।
दूसरे दिन मुनि कानमलजी ने इस संबंध में कालूगणी से निवेदन किया । कालूगणी ने मुनि चांदमलजी को बुलाकर ऐसा करने का कारण पूछा। उन्होंने कहा - 'सबको मौका दिया गया, मुझे ही वंचित क्यों रखा गया?' कालूगणी ने फरमाया-'आपको कल समय नहीं मिला तो आज मिल जाता, पन्ने फाड़कर आपने अच्छा नहीं किया ।'
मुनि कानमलजी उसी समय बोले, 'गुरुदेव ! इन्होंने बड़ी मूर्खता की है ।' मुनि चांदमलजी ने गुरुदेव से शिकायत करते हुए कहा कि मुनि कानमलजी क्या कह रहे हैं? कालूगणी ने सब संतों को याद किया और फरमाया - 'कानमलजी ३२८ / कालूयशोविलास-२