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अवगाहन करें१. राजन्! कमलपत्राक्षे करेणुः करणैर्विना।
लिखितं रक्तमसिना तत्ते भवतु चाक्षयम्।। २. देवराजो मया दृष्टो वारिवाहस्य मस्तके।
भक्षयित्वार्कपत्राणि वनं पीत्वा वनं ययौ।। ३. माला स्वयंवरस्थाने कण्ठे रामस्य सीतया।
मुधा बुधा भ्रमन्त्यत्र प्रत्यक्षेऽपि क्रियापदे ।। ४. एहि हे रमणि! पश्य कौतुकं धूलिधूसरतनुं दिगम्बरम्।
साऽपि तद् वदनपंकजं पपौ कर्मगुप्तमिति तद् विभाव्यताम् ।। ६७. आचार्यश्री कालूगणी ने तेरापंथ धर्मसंघ में शिक्षा का विकास करने के लिए हर संभव उपाय काम में लिया। संस्कृत व्याकरण, शब्दकोश आदि कंठस्थ करना काफी कठिन काम था। किंतु कालूगणी ने नाममाला, चन्द्रिका आदि सीखने वालों के लिए हजारों गाथाओं (तेरापंथ संघ की कल्पित मुद्रा) के पुरस्कार का निर्धारण कर दिया। पुरस्कार के इस क्रम में मुनि तुलसी ने बीस हजार गाथाओं का पुरस्कार प्राप्त किया।
अध्ययन की प्रेरणा के साथ कालूगणी विद्यार्थी साधु-साध्वियों की योग्यता के आधार पर उनके स्तरों का भी निर्धारण कर देते थे। तीक्ष्णबुद्धि संतों को 'हैमी नाममाला' सीखने का निर्देश मिलता और मन्द बुद्धि मुनि शारदीया नाममाला सीखते।
उस समय साध्वियों का अंकन तीक्ष्णबुद्धि संतों के साथ नहीं था, इसलिए उन्हें भी शारदीया नाममाला के क्रम में रहना पड़ा। कालान्तर में साध्वियों ने 'हैमी नाममाला' सीखने की मांग की। आचार्यश्री तुलसी ने उनकी योग्यता का अंकन कर उसे सीखने का आदेश दे दिया।
६८ संस्कृत भाषा में गति करने के लिए संस्कृत व्याकरण का अध्ययन नितांत अपेक्षित है। कालूगणी अपने युग में संस्कृत की नई पौध को पल्लवित करना चाहते थे। इस कार्य में अध्ययन सामग्री और सहायक, दोनों का योग अपेक्षित था। पण्डित घनश्यामदासजी के बाद पण्डित रघुनन्दनजी का सुयोग सहायक की भूमिका के लिए सर्वथा अनुकूल था। पर अध्ययन सामग्री के लिए ग्रंथों का निर्धारण करना जरूरी था।
कालूगणी ने साधु-साध्वियों को अध्ययन करने के लिए 'सिद्धान्तकौमुदी' याद करने का निर्देश दिया। याद करना सहज था, पर प्रक्रिया जटिल होने से
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