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________________ धनराजजी ने कहा- तुम मौन क्यों बैठे हो ? बोलो। मुनि चंदनमलजी बोले- 'आप बोलते रहें, मुझे सुनते-सुनते याद हो जाएगा ।' मुनि धनराजजी - मुझे क्या गरज है, जो मैं तुम्हारे लिए रटन लगाता रहूं। मुनि चंदनमलजी - आपको गरज नहीं है तो मुझे क्या गरज है, जो मैं आपके साथ बोलता रहूं। आपको जरूरत हो तो स्वयं रट-रटकर सिखाएं, अन्यथा मैं नहीं सीखूंगा । दोनों मुनि बालक तो थे ही, अपनी-अपनी बात पर अड़ गए। बात कालूगणी तक पहुंची। उन्होंने दोनों मुनियों के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - 'न तो तुझे आवश्यकता है और न इसे । पर मुझे आवश्यकता है। मैं अपने बाल - साधुओं को अबोध नहीं रखना चाहता । अतः दोनों को ही कठिन परिश्रम कर सीखना होगा। तुम रटाओ और तुम रटो ।' ६५. भीनासर प्रवास काल में संवेगी संप्रदाय (पायचन्दिया गच्छ) के श्री पूज्यजी देवचन्दजी ने कालूगणी को अपने उपाश्रय में आने के लिए आग्रह भरा निवेदन किया। पंचमी समिति जाते समय कालूगणी वहां पधारे। प्रारंभिक शिष्टाचार के बाद थोड़ी देर और बात हुई । कालूगणी वहां से वापस पधारने लगे तो संवेगी मुनि लावण्यविजयजी ने संतों से पूछा - 'कदागुरोकसो भवन्तः' आकस्मिक रूप से नई बात पूछे जाने पर मुनि विस्मित होकर सोचने लगे। तभी मुनि सोहनलालजी बोले - 'कदा आगुः ओकसो भवन्तः ( आप घर कब आए ? ) । ' इस विलक्षण संधि-विच्छेद में सफलता देखकर पूछने वाले मुनि भी आश्चर्य में खो गए। उन्होंने कालूगणी की ओर संकेत कर कहा - 'आप संतों को काफी अच्छे ढंग से तैयार कर रहे हैं।' ६६. आचार्यश्री कालूगणी के बीकानेर - प्रवास में मूर्तिपूजक संत कभी-कभी आचार्यश्री से मिलते रहते थे। एक बार मिलन- प्रसंग में एक मुनि ने संतों से पूछा - 'कुमरीनव भूपस्य ' - इस वाक्य में संधि क्या है? संधि काफी जटिल थी, फिर भी संत अपनी प्रतिभा को कसौटी पर कसने लगे। कुछ ही क्षणों में मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने संधि-विच्छेद कर बताया- भूप ! ' कुम् अव अरीन् स्य' (हे राजन् ! पृथ्वी की रक्षा करो, शत्रुओं का अंत करो)। संधि और अर्थ दोनों ठीक थे 1 इसके बाद तो ऐसी गुप्त संधि को खोजने और पूछने का सिलसिला ही चल पड़ा। इस सिलसिले में कुछ ऐसे पद्य भी जानकारी में आए, जिनकी जटिल सन्धियां बुद्धि के लिए अच्छा व्यायाम हैं । कुछ श्लोक यहां उल्लिखित किए जा रहे हैं। पाठक अपनी प्रतिभा की स्फुरणा के लिए उनके अर्थ और अन्वय में ३२४ / कालूयशोविलास-२
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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