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प्रयत्न के फलस्वरूप तेरापंथी जैनों के लिए एक अलग कोष्ठक रखने का निर्देश दिया गया।
७६. कालूगणी अपने शासनकाल में संस्कृत विद्या को विकसित रूप में देखना चाहते थे। संस्कृत का विकास उसके व्याकरण पर निर्भर है। संस्कृत भाषा का व्याकरण कुछ जटिल तो है पर दृढ़ संकल्प के सामने जटिलता स्वयं समाप्त हो जाती है।
कालूगणी संस्कृत व्याकरण का अभ्यास करने वाले साधुओं से कहते- 'व्याकरण का अध्ययन करना है तो 'घो. चि. पू. लि.' इन चार शब्दों को पकड़ लो।' इस संदर्भ में आप एक दोहा सिखाते
खान पान चिंता तजै, निश्चय मांडै मरण।
घो. चि. पू. लि. करतो रहै, तब आवै व्याकरण।। घो.-घोकना, कंठस्थ करना। चि.-चितारना, प्रत्यावर्तन करना। पू.-पूछना। लि.-लिखना।
उपर्युक्त चार बातें नहीं आएंगी तो व्याकरण भी नहीं आएगा। कालूगणी ने स्वयं इन चार बिन्दुओं को पकड़ा तथा साधु-साध्वियों को भी इस ओर प्रेरित किया।
८०. न्यायशास्त्र के क्षेत्र में जैन न्याय का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। तेरापंथ संघ में न्याय के अध्ययन-अध्यापन का क्रम विशेष रूप से कालूगणी के समय से चला। आपने मुनि तुलसी को ‘षड्दर्शन' कंठस्थ करने के बाद 'प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार' के सूत्र याद करने का निर्देश दिया। उस समय कालूगणी के पास 'प्रमाणनय....' की एक ही प्रति थी। उसमें केवल सूत्र थे, जो आठ-नौ पत्रों में लिखे हुए थे। वह प्रति वर्षा से भीगी हुई थी और उसमें पानी के धब्बे भी थे।
मुनि तुलसी ने पहली बार किसी न्याय-ग्रंथ का नाम सुना। विषय नया था, फिर भी कालूगणी ने उसके प्रति इतनी अभिरुचि जाग्रत कर दी कि उन्होंने कुछ ही समय में सूत्र याद कर लिए। कालूगणी कई बार वे सूत्र सुनते और कहते-कहीं इसकी वृत्ति मिल जाए तो जरूर पढ़नी है।
कालूगणी के स्वर्गवास के कुछ वर्षों बाद आचार्यश्री तुलसी को अपने पुस्तक भण्डार से 'प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकार' की वृत्ति (रत्नाकरावतारिका) की एक पुरानी
३१६ / कालूयशोविलास-२