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प्रति मिली। उसे देखते ही आचार्यश्री के मन में एक अज्ञात आकर्षण जग गया। उन्होंने उसकी नई प्रति बनवाई। कालान्तर में तो उसकी मुद्रित पुस्तकें (रत्नाकरावतारिका एवं बृहवृत्ति स्याद्वादरत्नाकर) भी उपलब्ध हो गईं। इस उपलब्धि के बाद उसका अध्ययन किया, अध्यापन किया और तेरापंथ संघ के पाठ्यक्रम (योग्यतम द्वितीय वष) में जोड़ दिया। अध्ययन-अध्यापन के क्रम से पता चला कि न्याय के क्षेत्र में विशद जानकारी पाने के लिए उक्त ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। आचार्यश्री कालूगणी उसका महत्त्व नहीं बताते तो सम्भवतः उसके प्रति सहज भाव से इतना आकर्षण नहीं होता।
८१. आचार्यश्री कालूगणी के मन में अपने धर्मसंघ में ज्ञान की गंगा को तीव्रता से बहा देने की इच्छा थी। इस इच्छा की पूर्ति के लिए वे समय-समय पर अपने भावी उत्तराधिकारी मुनि तुलसी को प्रेरित करते रहते थे। संस्कृत भाषा पढ़ाने के उद्देश्य से उन्होंने मुनि तुलसी को व्याकरण सिखाया। छंद विद्या में अवगाहन करने के लिए 'वृत्तरत्नाकर' याद करवाया। साहित्य की दृष्टि से काव्यानुशासन पढ़ने की प्रेरणा दी। प्राकृत भाषा में गति करने के लिए आठवां अध्याय सिखाया। आठवें अध्याय पर लिखी गई 'प्राकृतढूंढिका' का अध्ययन उसी पूर्व प्रेरणा से हुआ। ढूंढिका आठवें अध्याय की व्याख्या है, जिसके दो चरण छपे हुए हैं। शेष दो चरण हमारे पुस्तक भण्डार में हैं, जो संभवतः अभी तक अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हुए हैं।
'ज्ञान कंठां और दाम अंटां' इस जनश्रुति में कालूगणी का पूरा विश्वास था। इसलिए उणादि, गणरत्नमहोदधि, धातुपाठ, लिंगानुशासन, प्रबोधचन्द्रिका (व्याकरण) आदि न जाने कितने प्रकीर्ण ग्रंथ मुनि तुलसी को कंठस्थ करवाए। 'शान्तसुधारस' (जो कि उस समय पूरा उपलब्ध नहीं था) की कुछ गीतिकाएं याद करवाकर बार-बार सुनते और प्रसन्नता व्यक्त करते। बाद में जब वह पूरा उपलब्ध हुआ तो तेरापंथ धर्मसंघ में इसका विशेष प्रचलन हो गया। ज्ञानाराधना की इन दिशाओं का उद्घाटन पूज्य गुरुदेव कालूगणी की सूझबूझ और प्रेरणा का सुफल है तथा उद्घाटित दिशाओं में नए-नए उन्मेष लाने का सारा श्रेय आचार्यश्री तुलसी को है।
८२. आगम साहित्य के अनुशीलन से श्रीमज्जयाचार्य को कुछ विशेष दृष्टियां मिलीं। कालूगणी ने अपने युग में उन दृष्टियों को अधिक परिमार्जित कर लिया। वे बहुत बार कहते थे-आगमों का शब्दार्थ रटने मात्र से काम नहीं चलेगा, विशद जानकारी के लिए टीका साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। तुलनात्मक अध्ययन
परिशिष्ट-१ / ३१७