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को तिजोरी की चाबियां सौंपकर सुरक्षा का भार दिया। दूसरी बहू भोगवती को रसोईघर की व्यवस्था संभलाई और बड़ी बहू उज्झिता को घर की सफाई का काम सौंपा। योग्यता के अनुसार कार्य का विभाजन देखकर आगंतुक लोगों ने सार्थवाह की मुक्तकंठ से प्रशंसा की ।
पूज्य कालूगणी ने भी रक्षिता और रोहिणी की भांति धर्मसंघ की प्रगति में अपना योगदान दिया ।
७२. आचार्यश्री तुलसी ने अपने बचपन में लोगों के मुंह से सुना - ' अपने धर्मसंघ के संबंध में किंवदंती चली आ रही है कि इसके आठवें आचार्य विलक्षण होंगे।' किसी अन्य व्यक्ति ने कहा - 'किंवदंती क्यों? स्वयं स्वामीजी ने स्वप्न में इस तथ्य का संकेत दिया है।' एक अन्य व्यक्ति बोला- 'जयाचार्य को एक स्वप्न आया, उसमें भी इस बात का आभास मिलता है।' एक भाई बोला- 'स्वप्न और किंवदंतियों की बात छोड़ो। मैं एक ठोस प्रमाण देता हूं। बीदासर के नगराजजी बैंगनी को देवता का इष्ट था। जिस दिन कालूगणी का जन्म हुआ उसी दिन उन्होंने व्याख्यान में जयाचार्य एवं युवाचार्य श्री मघवा से यह निवेदन कर दिया था कि आज तेरापंथ के एक प्रभावक आचार्य का जन्म हुआ है और वह स्थान यहां से चार कोस के अंदर-अंदर है ।'
आचार्यश्री ने अपने काव्य में उक्त तथ्यों का उद्धरण देते हुए लिखा है कि इन किंवदंतियों में कितना तथ्य है, मैं नहीं जानता । पर आठवें आचार्यश्री कालूगणी का प्रभाव अनिर्वचनीय रहा, यह हमने प्रत्यक्ष देखा है और अनुभव किया है।
७३. मुनि चौथमलजी ने शकुन के फल में संदेह उपस्थित करते हुए एक दिन आचार्यश्री कालूगणी से निवेदन किया- 'गुरुदेव ! पहले तो शकुन की बात बहुत मिलती थी, आजकल ऐसा नहीं होता है। क्या शकुन सारे निरर्थक हैं?' कालूगणी ने मुनि चौथमलजी के इस प्रश्न पर टिप्पणी करते हुए कहा - 'शकुन के फल होते थे और होते हैं, अतः हम उन्हें निरर्थक क्यों मानें? देखो, अभी हम जब लाडनूं गए थे तब फणधर काले नाग का शकुन हुआ था। उसके फलस्वरूप अकल्पित रूप से 'तुलसी' की दीक्षा हो गई। इससे बढ़कर उस शकुन का और क्या फल होता ।
७४. आचार्यश्री भिक्षु एक नए धर्मसंघ के संस्थापक थे। उस समय उनके सामने मकान और भोजन की कठिनाई तो थी ही, अध्ययन के लिए पूरे शास्त्र भी उपलब्ध नहीं थे। भगवती सूत्र की प्रति प्राप्त करने के लिए स्वामीजी ने अथक
परिशिष्ट-१ / ३१३