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________________ कर आग्रहपूर्वक आचार्यश्री से निवेदन किया। आचार्यश्री इस प्रसंग को टालना चाहते थे। क्योंकि इसमें कुछ दूसरी बाधाओं के साथ एक व्यावहारिक बाधा यह थी कि मातुश्री छोगांजी की उपस्थिति में दूसरी माजी का आगमन कैसे रहेगा? इस पर जनता की क्या प्रतिक्रिया होगी? दोनों माजी का पारस्परिक संबंध क्या होगा? अनेक प्रश्नचिह्न खड़े हो गए। पर सेवाभावीजी ने दीक्षा के अनुकूल ऐसा वातावरण तैयार कर लिया कि अनेक व्यक्तियों ने मातुश्री को दीक्षा के लिए स्वीकृति देने का अनुरोध किया। मातुश्री छोगांजी ने इस संबंध में सुना तो उन्होंने भी दीक्षा के लिए बल देकर निवेदन करवाया। फलतः वि.सं. १६६४ बीकानेर चातुर्मास में संपन्न इकतीस दीक्षाओं में मातुश्री वदनांजी की दीक्षा हो गई। मातुश्री वदनांजी दीक्षित होकर बीदासर में जब मातुश्री छोगांजी से मिलीं तो उन्होंने उनका हृदय से स्वागत किया। वे उन्हें अपना साझीवाल कहकर पुकारतीं और वदनां-वदनां संबोधित कर प्रसन्न हो जातीं। चातुर्मास, महोत्सव तथा शेषकाल के समय जब कभी दोनों मातुश्री का सहवास होता, परस्पर सौहार्द का वातावरण खिल उठता। दो आचार्यों की माताएं दीक्षित होकर एक साथ रहीं। यह तेरापंथ के इतिहास की नई घटना थी। दोनों मातुश्री की एकता विलक्षण थी। मातुश्री छोगांजी बीदासर स्थिरवासिनी थीं। उनका स्वर्गवास वि.सं. १६६७ में हुआ। मातुश्री वदनांजी का स्थिरवास भी बीदासर में हुआ, यह भी उनके एकत्व की एक कड़ी है। ६८. शुक्ल पक्ष की द्वितीया को आकाश में नए चंद्रमा का उदय होता है। द्वितीया के चंद्रमा को हिंदू और मुस्लिम दोनों देखते हैं, महत्त्व देते हैं तथा उसे शुभ और मंगलरूप में मानते हैं। इस परंपरा के पीछे रहस्य क्या है, वह शोध का विषय है। पर यह परंपरा है बहुत प्राचीन। . ___आचार्यश्री कालूगणी का जन्म फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को हुआ। इसलिए नवोदित चंद्रमा की कल्पना कर संसार सहज ही उनके प्रति नतमस्तक होता रहा। ६६. आचार्यश्री कालूगणी ने अपने जीवन में तीन आचार्यों का सान्निध्य उपलब्ध किया। मघवागणी की सन्निधि में आप पांच साल रहे, माणकगणी के नेतृत्व में साढ़े चार साल रहे और डालगणी की अनुशासना में साढ़े ग्यारह साल रहे। तीनों आचार्यों की अनुशासना में आचार्यश्री कालूगणी एक शासित व्यक्ति की हैसियत से रहे थे, फिर भी अपने-आप में इतने लीन थे कि उनको निकटता से देखनेवाले कहते-'ये तो राजा भोज हैं।' कालूगणी के संबंध में यह भी कहा जाता है कि उनकी जन्मकुण्डली में परिशिष्ट-१ / ३११
SR No.032430
Book TitleKaluyashovilas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
PublisherAadarsh Sahitya Sangh
Publication Year2004
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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