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बार गाने का प्रसंग आता तब मुझे खड़ा करते और उसका विश्लेषण स्वयं करते थे। मैं तो उसी क्रम का प्रत्यावर्तन कर रहा हूं।'
६५. कालूगणी के समय में तेरापंथ संघ में शिक्षा का बहुआयामी विकास हुआ। उन्होंने मुनि तुलसी को भी समय-समय पर अध्ययन की बहुत प्रेरणा दी । दिन में कई बार आप स्वयं हाथ में पत्र लेकर कहते- 'तुलसी ! आज कितना पाठ याद किया है, मुझे सुना ।
'
अध्ययन में किसी प्रकार की बाधा न आए, इस दृष्टि से बहुत बार कालूगणी मुनि तुलसी को अपने सामने आने और पहुंचाने जाने के लिए मना कर देते ।
कालूगणी कभी-कभी अत्यंत स्नेह के साथ कहते - 'तुलसी ! तू अभी अधिक समय लगाकर तथा श्रम करके अध्ययन किया कर । इस समय अध्ययन होना सहज है, बाद में मुश्किल हो जाएगा ।'
मुनि तुलसी ने उस प्रेरणा को गहराई से स्वीकार किया और शिक्षा के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित कर दिया ।
६६. दीक्षा के बाद शैक्ष साधु-साध्वियों की कुछ समय तक आहार की पांती (विभाग) नहीं की जाती, उनके भोजन की व्यवस्था समुच्चय से होती है । कालूगणी ने मुनि तुलसी को तीन साल तक समुच्चय में रखा। कालूगणी स्वयं भी तीन वर्ष समुच्चय में रहे थे, संभवतः उन्होंने उसी अवधि को लक्षित कर मुनि तुलसी के लिए भी तीन वर्ष का समय रखा ।
पांती होने के बाद भोजन की व्यवस्था अपने-अपने साझ (आचार्य के साथ रहने वाले साधुओं के दल ) में होती है। मुनि तुलसी भी अपने साझ के संतों के साथ भोजन करने लगे, पर कालूगणी के मन में इतना वात्सल्य था कि बहुत महीनों तक उनको एक समय का भोजन अपने पास ही करवाते तथा बाद में भी कोई विशेष पदार्थ आता तो साधुओं के द्वारा वहीं पहुंचा देते। मुनि तुलसी अपने आराध्यदेव के उस करुणामय प्रसाद को अमृत समझकर स्वीकार कर लेते।
ग्यारह वर्ष की उस अवधि में बहुत कम दिन ऐसे बीते होंगे, जब भोजन के समय कालूगणी ने मुनि तुलसी को याद न किया हो ।
६७. मातुश्री वदनांजी आचार्य श्री तुलसी की संसारपक्षीया माता थीं । आचार्यश्री की दीक्षा के समय ही मातुश्री दीक्षा लेना चाहती थीं, पर आचार्यश्री ने अपनी दीक्षा में विलंब की संभावना से उस बात पर ध्यान नहीं दिया। आचार्यश्री कालूगणी के स्वर्गारोहण के बाद मातुश्री ने अपने वैराग्य की बात प्रबलता से उठाई | आचार्यश्री तुलसी ने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया, पर सेवाभावी मुनिश्री चंपालालजी का मानस बन गया । उन्होंने मंत्री मुनि श्री मगनलालजी को तैयार
३१० / कालूयशोविलास-२