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ही होते हैं, पर व्याकरण में एक सूत्र आता है-'संयोगे गुरुः' -संयुक्त अक्षर आगे होने पर लघु-संज्ञक अक्षर भी गुरुसंज्ञक हो जाते हैं। जैसे-एक शब्द है-सत्य। इसमें सकार एकमात्रिक अक्षर है, अतः लघु है। किंतु आगे त्य इन संयुक्त अक्षरों के योग से सकार गुरुसंज्ञक हो गया।
इसी प्रकार गुरु की कृपा से सामान्य व्यक्ति भी महान बन जाता है।
५६. आचार्यश्री तुलसी के युवराज पदारोहण के अवसर पर गणेशदासजी गधैया (काली दाढ़ी वाले सेठ) के मानसिक उत्साह का अंकन निम्नलिखित पंक्तियों से किया जा सकता है
१. उत्साह मनायो सेठ 'श्याम दाढ़ीधर'
थाळ्यां भर बांटी खूब मिठायां घर-घर। केसरिया साफा केसर स्यूं रंगाया, पच्चासां कर्मचारियां सिर बंधाया।। २. जो आयो हाथ बधाई में दे दीन्हो,
सरदार नारसिंह रो मूल्यांकन कीन्हो। पंडित रघुनंदन घनश्याम सनमान्या,
वैतनिक नौकरां नै घर का ज्यूं मान्या।। ५७. उस समय आचार्य-वंदना के समय साध्वियां सब संतों को नामोल्लेख पूर्वक वंदना करती थीं। उस दिन (वि. सं. १६६३ भाद्रव शुक्ला तृतीया) प्रातःकाल साध्वियां गुरुदेव को वंदन करने पहुंचीं। आचार्यश्री कालूगणी द्वारा मुनि तुलसी को युवाचार्य पद प्रदान करने के बाद साध्वियों ने सदा की भांति वंदना का क्रम प्रारंभ किया।
साध्वी किस्तूरांजी (लाडनूं) एक-एक मुनि का नामोल्लेख कर रही थीं। उन्होंने युवाचार्यश्री का नाम दीक्षा-क्रम के अनुसार बीच में लिया। नाम लेते ही आचार्यश्री कालूगणी ने उनको संकेत कर रोका और फरमाया-'क्या वंदना करती हो? पूरी विधि भी नहीं जानती। दूसरी बार करो।' दूसरी बार के वंदना-क्रम में युवाचार्य तुलसी का नाम बिलकुल छोड़ दिया गया। कालूगणी ने फिर फरमाया-'वंदना विधिवत नहीं हुई, दुबारा करो।'
आचार्य की सन्निधि में युवाचार्य को वंदना कैसे हो, यह अनुभव वहां उपस्थित साध्वियों में से किसी को नहीं था। सब मुनि भी उस विधि को नहीं जानते थे। साध्वी किस्तूरांजी सहमी हुई-सी इधर-उधर देखने लगीं। आखिर मंत्री मुनि मगनलालजी ने उनको मार्गदर्शन देते हुए कहा-देखो, पहले आचार्यश्री को वंदना करो, फिर 'मत्थएण वंदामि युवाचार्य महाराज' -इस शब्दावली से युवाचार्य ३०६ / कालूयशोविलास-२