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४. पुनर्नवाष्टकं क्याथं, प्रातः सायं पिबेत् गदी । हृदयार्णवनामानं मधुना च लिहेद् रसम् ।। ५. किं चात्र केवलं दुग्धं, धैनवं वापि कारभम् । विहायान्नं प्रसेवेत क्षिप्रमारोग्यकांक्षया । ।
शार्दूलविक्रीडितं छन्दः
६. रोगः कष्टतम वयो नहि नवं नाप्यस्ति शक्तो गदी, किं चोपद्रवपीड़ितोऽथ समयो धाराधरः क्रोधनः । इत्येतत् मनसाकलय्य यततां सम्यग् विविच्यात्मना, तस्यारोग्यमहं प्रपन्नशरणं धन्वन्तरिं प्रार्थये । । ५१. आचार्यश्री कालूगणी ने अपने जीवन के संध्याकाल में अपने उत्तराधिकारी आचार्यश्री तुलसी को एक विशेष संकेत देते हुए कहा - ' अपना धर्मसंघ बहुत बड़ा है। इसमें सैकड़ों साधु-साध्वियां साधना कर रहे हैं । सब साधक समान नहीं होते हैं। कई साधु-साध्वियां बहुत जागरूक हो सकते हैं तो कई बहुत प्रमादी भी हो सकते हैं। वे प्रमादवश छोटी गलती कर सकते हैं, बड़ी गलती कर सकते हैं और एक गलती को बार-बार दोहरा भी सकते हैं। ऐसी कोई भी स्थिति तुम्हारे सामने उत्पन्न हो जाए तो घबराहट की कोई जरूरत नहीं है । साधना करने वाले सब छद्मस्थ हैं। छद्मस्थ अवस्था में यदाकदा प्रमाद हो सकता है, इस तथ्य को ध्यान में रखकर तुम हर स्थिति को संभालना ।'
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'अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कालूगणी ने कहा- 'गलती करने वालों में जब तक साधुत्व के प्रति आस्था हो तथा साधुपन पालने की नीति हो, तुम उनको सहयोग देना। तुम्हारे मन में थोड़ा भी विचार आ गया तो उनका साधुपन पलना कठिन हो जाएगा।'
कालूगणी की इस शिक्षा से आचार्य श्री तुलसी को बड़ा संबल मिला। आज भी उनके सामने जब कभी कोई उलझन भरी स्थिति उत्पन्न होती है, कालूगणी के वे शब्द स्मृति में उभर आते हैं, मन पर आया हुआ भार उतर जाता है और बहुत बड़ा आश्वासन मिलता है।
५२. प्राचीन काल में साधुओं की लेखन प्रक्रिया में स्याही निकालने की विशेष विधि थी। लेखन- कार्य में काली स्याही काम में ली जाती थी। सूर्यास्त के बाद गीली स्याही रखना विहित नहीं है, इसलिए उसे वस्त्र खण्ड में सोखकर सुखा दिया जाता। दूसरे दिन सूर्योदय के बाद उसे पानी से भिगोकर पुनः स्याही
३०२ / कालूयशोविलास-२