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किंतु अस्वस्थ अवस्था में गुरुदेव को छोड़ने का मन नहीं करता है। पर कालूगणी ने उनके निवेदन को स्वीकार नहीं किया।
मुनि तुलसी द्वारा एक बार किए गए निवेदन पर कालूगणी का इतना ध्यान वास्तव में एक विशेष घटना है। _. ४६. पूज्य गुरुदेव कालूगणी के स्वास्थ्य पर औषधि का कोई प्रभाव न देखकर आशुकवि आयुर्वेदाचार्य पंडित रघुनंदनजी शर्मा ने बीमारी और औषधि-प्रयोग का विवरण संस्कृत भाषा के इक्कीस पद्यों में अंकित कर उस पत्र को जयपुरवासी राजवैद्य दादूपंथी संत श्री लच्छीरामजी के पास भेजा। पत्र ले जाने वाले श्रावक थे वृद्धिचंदजी गोठी और पूर्णचंदजी चौपड़ा।
अनुष्टुप्छन्दांसि
१. श्रीमतां वैद्यवैद्यानां, वारीन्द्राणां यशस्विनां। ___ लक्ष्मीरामाह्वसाधूनां, सेवायामिति तन्यते।। २. सांप्रतं श्रीजिनाचार्यः, कालूरामाभिधो महान् ।
पीड्यते कृच्छ्रसाध्येन, रोगेणैकेन भूरिशः ।। ३. चिकित्सा जायतेऽस्माकं, यथावच्छास्त्रसम्मता।
तथापि क्रमशो लाभो विशेषो न विलोक्यते।। ४. लिख्यते रोगनामापि, निर्णीतं यन्मया स्वतः।
लक्षणान्यपि दर्श्यन्ते, कार्या निर्धारणा बुधैः ।। ५. कुक्षेराध्मानमाटोपः, शोथः पादकरस्य च।। __इत्यादिलक्षणैः स्पष्टैर्जायते ह्युदरामयः।। ६. मन्दोग्निवर्ततेऽनल्पोऽनल्पकालसमुद्भवः । ___सर्वेषामिति कष्टानां प्रारम्भो दृश्यते यतः।। ७. दृश्यते ज्वरवैषम्यमेकाधिकशताङ्कगम्।
शुष्ककासो विशेषेण पूर्वरात्रे च बाधते ।। ८. व्याप्तः सर्वत्र देहेऽपि तथापि क्रमयोर्द्वयोः।
शोथो विशेषतां यातो विस्मापयति मानवान्।। ६. करोति भिषजांवर्य! स्वकीयां न क्रियां यकृत्।
दृश्यते पाण्डुता तेन, त्वचि मूत्रे मलेऽपि च।। १०. जराधिक्ये क्वचित्तन्द्रा, हृल्लासश्चाशनान्तिके।
उदरस्योन्नतिर्थीमन् ! कायकार्येऽपि वर्धते ।।
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३०० / कालूयशोविलास-२